एम० नागेश्वर राव के ट्वीट "A Twist in the Tale: Has BJP become the adda of corrupt?" का अनाधिकारिक हिन्दी अनुवाद

एम० नागेश्वर राव के ट्वीट "A Twist in the Tale: Has BJP become the adda of corrupt?" का अनाधिकारिक हिन्दी अनुवाद 

मूल ट्वीट लिंक - https://twitter.com/MNageswarRaoIPS/status/1779316798430826922 


           कहानी में ट्विस्ट : क्या भाजपा बन चुकी है भ्रष्टाचार का भंडार?

2014 के लोकसभा चुनावों की तैयारी में, भाजपा ने अपना अभियान कांग्रेस-नेतृत्व वाली संप्रग (यूपीए) सरकार के कथित भ्रष्टाचार को लक्ष्य करके केंद्रित किया था, साथ में 'अच्छे दिन' का वादा करते हुए। प्रचार अभियान के दौरान अनेक बार नरेंद्र मोदी जी ने भ्रष्टाचारियों को जेल में डालने के बड़े-बड़े वादे किये। वे एक अन्य विषय पर बड़े ज़ोर-शोर से बोलते थे, जो था: 'स्विस बैंकों में ठिकाने लगाया गया सारा लूटा हुआ धन वापस लाना, और काले धन का उन्मूलन' । जनता ने बीजेपी को निर्णायक जनादेश दिया और 2014 में मोदी प्रधानमंत्री बने। 


8 नवंबर 2016 को एक सार्वजनिक प्रसारण में प्रधानमंत्री मोदी ने घोषणा की कि 500 और 1000 रुपये के नोट वैध मुद्रा नहीं रहेंगे, साथ ही काफ़ी बढ़ा-चढ़ाकर एलान किया कि #नोटबंदी का उद्देश्य भ्रष्टाचार पर लगाम लगाना और काले धन को समाप्त करना है। हालाँकि, यह बनावटी साबित हुआ। विगत दिनों में, माननीय उच्चतम न्यायालय की न्यायाधीश, न्यायमूर्ति बी. वी. नागरत्न ने हैदराबाद में आयोजित एक संगोष्ठी में कहा कि उस समय (नोटबंदी के समय) भारतीय अर्थव्यवस्था में कुल मुद्रा का लगभग ८६ प्रतिशत ५०० तथा १००० रुपये के नोटों द्वारा निर्मित था। क्योंकि नोटबंदी के बाद लगभग ९८ प्रतिशत नोट बैंकों के पास वापस आ गये, अतः उन्होंने इस अभियान के उद्देश्य पर आश्चर्य व्यक्त किया। उन्होंने काले धन उन्मूलन के बारे में भी सवाल उठाया क्योंकि नोटबंदी काले धन को सफेद करने का एक अच्छा तरीका बन गया।  


2017 में भाजपा सरकार ने चुनावी चंदा-बॉण्ड (#ElectoralBond) योजना शुरू की, जो राजनीतिक दलों को गुप्त वित्तीय योगदान का प्रावधान करती थी; इसे लागू करने के क्रम में क्रम में विभिन्न कानूनों में संशोधन किया गया, यथा जन प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951; कंपनी अधिनियम, 2013; आयकर अधिनियम, 1961। इसका उद्देश्य बताया गया: काले धन, भ्रष्टाचार आदि का उन्मूलन करके राजनीतिक चंदे  में पारदर्शिता और जवाबदेही बढ़ाना था। उच्चतम न्यायालय ने हाल ही में इस गुप्त चुनावी चंदा योजना को असंवैधानिक घोषित किया है, और सभी चुनावी बॉण्डौं के पूरे विवरण का खुलासा करने का आदेश दिया है। माननीय न्यायालय के आदेश के चलते, सार्वजनिक डोमेन में सामने आये आंकड़ों के अनुसार, यह खुलासा हुआ कि कुल चंदे में से भाजपा सबसे बड़ी लाभार्थी है, जिसे कुल 11,450 करोड़ रुपयों में से 6,566 करोड़ रुपये प्राप्त हुए (लगभग 57%)। 

समसामयिक साक्ष्य इंगित करते हैं कि #ElectoralBonds में एक भारी घोटाले होने के सभी लक्षण मौजूद हैं, जैसे 'एक हाथ दे - एक हाथ ले' मार्का कारनामे तथा भ्रष्टाचार; फ़र्ज़ी और घाटे में चल रही कंपनियों द्वारा राजनीतिक दलों को भारी मात्रा में (संभवतः रिश्वत-रूपी) धन दान करना; तथा काले धन का सफ़ेद किया जाना।  


हमारी लोकतांत्रिक प्रक्रिया को विदेशी हस्तक्षेप से बचाने के लिए, विदेशी योगदान को नियंत्रित करने वाले कानूनों ने चुनावों में राजनीतिक दलों और उम्मीदवारों को विदेशी योगदान स्वीकार करने से रोका हुआ था। परंतु भाजपा सरकार ने वित्त अधिनियम 2016 और 2018 के माध्यम से 'विदेशी स्रोत' की परिभाषा को बदलकर विदेशी योगदान विनियमन अधिनियम 2010 (#FCRA) में संशोधन किया (पूर्वप्रभावी - with retrospective effect)। इस प्रकार न केवल अतीत में की गई अवैधताओं को क्षमा कर दिया, बल्कि राजनीतिक दलों को विदेशी धन वर्तमान में प्राप्त करने की भी अनुमति दी, फलस्वरूप हमारी संप्रभुता से समझौता करते हुए हमारी राजनीतिक और चुनावी प्रक्रिया में विदेशी घुसपैठ का मार्ग प्रशस्त किया। इसके अतिरिक्त, विदेशी वित्तपोषित ग़ैर सरकारी संस्थाओं (एनजीओ) के विरुद्ध कथित कार्रवाई के भारी प्रचार के बावजूद भी, 2014-15 के बाद से #FCRA द्वारा प्राप्त धन में भारी वृद्धि नोट की गयी। एक और जहां वित्तीय वर्ष 1994-1995 और 2013-14 के मध्य के 20 वर्षों के दौरान 1,51,036 करोड़ रुपये प्राप्त हुए थे, वहीं 2014-15 से 2023-24 के बीच मात्र 8 वर्षों में 1,46,392 रुपए प्राप्त हुए।वित्तीय वर्ष 2022-23 और 2023-24 के आँकड़े अभी उपलब्ध नहीं हैं। हालाँकि, विगत वर्षों में #FCRA द्वारा प्राप्त धन के रुझान के अनुसार, 50,000 करोड़ रुपये अनुमानित है (दोनों वित्तीय वर्षों को मिलाकर), जिससे भाजपा के 10 वर्षों के शासनकाल के दौरान #FCRA द्वारा प्राप्त कुल धन लगभग रु. 2,00,000 करोड़ अनुमानित होगा, जो कि अकल्पनीय रूप से अधिक है। भले ही उस भारी मात्रा में आये विदेशी धन का एक छोटा सा ही हिस्सा चुनावों में राजनीतिक दलों या उम्मीदवारों के पास गया हो, यह हमारे लोकतंत्र और संविधान पर एक गंभीर कुठाराघात के समान है। ये कैसी देशभक्ति है? 


2014 के लोकसभा चुनावों से कई महीने पहले, संप्रग (यूपीए) शासन के दौरान घटित कथित घोटालों की एक श्रृंखला सामने आई, जैसे चिट फंड घोटाला, चॉपर घोटाला, टाट्रा ट्रक घोटाला, 2G स्पेक्ट्रम घोटाला, राष्ट्रमंडल खेल (CWG) घोटाला, कोयला घोटाला, आदर्श घोटाला, आदि। न्यायालय, सी.बी.आई., ईडी और आयकर विभाग ने सक्रियता से कार्रवाई शुरू की, जिसके परिणामस्वरूप कई कांग्रेस और यूपीए नेता जांच के दायरे में आए। हालाँकि भाजपा की सत्ता प्राप्ति का आधार भ्रष्टाचार विरोध था, किंतु शायद ही किसी महत्वपूर्ण राजनीतिक नेता को दोषी ठहराया गया हो, न ही स्विस बैंकों में जमा काले धन का एक पैसा भी वापस लाया गया। दूसरी ओर, भाजपा कथित तौर पर क़ानूनी संस्थाओं का दुरुपयोग कर रही है, आरोपित विपक्षी नेताओं पर दबाव बनाने के लिए कि वे भाजपा के साथ आयें या गठबंधन करें। कथित तौर पर सवालों के घेरे में रहे और भाजपा में शामिल हुए 25 महत्वपूर्ण विपक्षी नेताओं में से 23 को कथित तौर पर राहत मिल गई है।


आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री वाईएस जगन जैसे राजनेता -- जो 11 सीबीआई और 7 ईडी मामलों सहित 38 आपराधिक मामलों का सामना कर रहे हैं -- भाजपा से अपनी शांति का सौदा करते दिख रहे हैं। परिणामस्वरूप, उनका कोई भी मामला आगे बढ़ता दिखाई नहीं देता, बावजूद इसके कि राजनेताओं के विरुद्ध दर्ज मामलों की सुनवाई में तेजी लाने के निर्देश स्वयं माननीय उच्चतम न्यायालय की और से हैं। इसी तरह, भाजपा से निकटता बढ़ना दृष्टिगोचर होने के बाद, और न्यायालयों के समक्ष अपने मामलों के कमजोर अभियोजन (prosecution) के चलते, द्रमुक नेताओं यथा मारन बंधुओं, ए. राजा, करुणानिधि की बेटी कनिमोझी को बरी कर दिया गया है। ये केवल इस बात के उदाहरण मात्र हैं कि कैसे भाजपा, भ्रष्टाचार, काले धन का शोधन (मनी लॉन्ड्रिंग) आदि के आरोपों का सामना कर रहे नेताओं के लिए एक सुरक्षित गढ़ बन गई है।


यह संभव है कि उक्तसंदर्भित श्रेणी के राजनेताओं में से कुछ वास्तव में निर्दोष हों। लेकिन चूंकि उनका निर्दोष होना सत्तारूढ़ भाजपा के साथ दलबदल करने या उसके साथ गठबंधन करने के बाद ही स्थापित हुआ है, इसलिए यह गंभीर नैतिक प्रश्न उठाकर संदेह की काली छाया तो उत्पन्न करती ही है। 


विगत वर्ष, चौदह राजनीतिक दलों ने भाजपा के संदर्भ में सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया था, सत्तारूढ़ दल द्वारा असहमति और असहमत होने के अपने मौलिक अधिकार का प्रयोग करने वाले विपक्षी राजनेताओं और अन्य नागरिकों की गिरफ्तारी में केंद्रीय जांच एजेंसियों के कथित दुरुपयोग के विरुद्ध। यह आरोप लगाया गया कि सीबीआई और ईडी द्वारा जांच किए गए 95% राजनीतिक नेता विपक्ष के हैं। अर्थात्, 2014 से 2022 के बीच ईडी जांच का सामना करने वाले 121 प्रमुख राजनेताओं में से 115 विपक्षी नेता हैं, जिन पर मामला दर्ज किया गया, छापेमारी की गई, पूछताछ की गई या गिरफ्तार किया गया।


भ्रष्टाचार को बढ़ावा देना, भाजपा के साथ आये तथा भ्रष्टाचार में घिरे नेताओं का बचाव करना, विपक्षी नेताओं को निशाना बनाना -- इस प्रकार के सभी आरोपों से बचाव करने की भाजपा की एक चली-चलाई रणनीति है। वह है: यह तर्क देना कि क्योंकि प्रधानमंत्री मोदी का स्वयं का कोई परिवार नहीं है; अतः उनके पास भ्रष्टाचारी होने का या भ्रष्टाचारियों का बचाव करने का कोई कारण नहीं है। यह एक प्रकार का छद्मपूर्ण तर्क है। स्वर्गीय जयललिता -- जो अविवाहिता थीं -- को भ्रष्टाचार के लिए दोषी ठहराया गया था और सजा भी हुई थी। ऐसे कई प्रमुख नेता हैं जो अविवाहित हैं या उनका कोई परिवार नहीं है और उन पर भ्रष्टाचार के मामले या आरोप चल रहे हैं। कहना तो छोड़िए, मेरा मंतव्य यह संकेत तक देने का नहीं है कि नरेंद्र मोदी व्यक्तिगत रूप से आर्थिक तौर पर भ्रष्ट हैं। मैं केवल इस बात को रेखांकित करके कि किसी की पारिवारिक स्थिति और भ्रष्टाचार के बीच कोई संबंध नहीं होता, उनके छद्म-तर्क को आईना दिखाना चाहता हूँ। स्मरण रहे कि व्यक्तिगत वित्तीय शुचिता होने के बावजूद, मनमोहन सिंह ने एक भ्रष्ट शासन की अध्यक्षता की। ऐसे में, अगर सत्तारूढ़ दल और सरकार सत्यनिष्ठ नहीं हैं, तो प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री की व्यक्तिगत वित्तीय शुचिता निरर्थक है।


किंचित् सम्मानीय अपवादों को छोड़कर, विपक्ष में रहते हुए प्रत्येक राजनीतिक दल भ्रष्टाचार के विरुद्ध बड़ी-बड़ी बातें करता है,  इसलिए नहीं कि वो पवित्र हैं, बल्कि इसलिए कि वे पैसा कमाने के अवसरों की कमी से फायदा उठाने की कोशिश करते हैं। अपनी भ्रष्टाचार-विरोधी बयानबाजी के बाद भी, भाजपा भ्रष्टाचार से अछूती नहीं है, जैसा कि उसका कटु इतिहास बताता है। 2001 में, भाजपा के तत्कालीन राष्ट्रीय अध्यक्ष स्वर्गीय बंगारू लक्ष्मण को मैथ्यू सैमुअल नामक व्यक्ति से रिश्वत लेते हुए कैमरे पर पकड़ा गया था, और बाद में 27 अप्रैल 2012 को विशेष सीबीआई अदालत ने उन्हें दोषी ठहराया और चार साल की सजा सुनाई गई। इसके अतिरिक्त, भाजपा के कर्नाटक के पूर्व मुख्यमंत्री श्री बी.एस. येदियुरप्पा को भ्रष्टाचार के आरोपों का सामना करना पड़ा और कुछ समय के लिए जेल में भी रहना पड़ा। विभिन्न मामलों में भाजपा पर भ्रष्टाचार के आरोप लगते रहे हैं, यथा: PM-CARES फंड मके संदर्भ में भाजपा सरकार के कृत्य जो गोपनीयता के घेरे में हैं; एयर इंडिया की कौड़ियों के भाव टाटा को बिक्री; द्वारका एक्सप्रेस-वे के निर्माण की लागत में भारी बढ़ोतरी (18.2 करोड़ रु. प्रति किमी से 251 करोड़ रु. प्रति किमी) पर CAG की चिंता; नमामि गंगे परियोजना के अन्तर्गत 14,000 करोड़ रुपये के सार्वजनिक धन का उपयोग, जबकि पवित्र गंगा, यमुना और कई अन्य नदियों की तरह गंदा नाला बनने के कगार पर है।


चुनावी चंदा घोटाला (#ElectoralBondScam) जो विभिन्न कथित घोटालों की ओर इशारा करता है, भ्रष्टाचार रूपी ग्रहण की एक झलक मात्र प्रतीत होता है। ऐसा लगता है कि इसे तार्किक रूप से परिणाम तक ले जाने की आगे की कार्रवाई शून्य सी हो गई है। अतएव, सभी कथित घोटालों की जाँच और सुनवाई का हश्र देखने और राजनीतिक वर्ग द्वारा जाँच को प्रभावित करने के तरीके को देखने के बाद, सत्य तो सामने लाने के लिए यह अनिवार्य है कि एक विशेष जाँच दल (एसआईटी) गठित हो, जिसमें माननीय उच्चतम न्यायालय द्वारा विशेष रूप से चुने गए सेवारत या सेवानिवृत्त अधिकारी सम्मिलित हों, तथा यह जाँच दल किसी क़ानूनी संस्था (जो स्वयं सरकार के ही नियंत्रण में होंगी) को जवाबदेह होने के बजाय, सीधा माननीय न्यायालय को जवाबदेह हो। 


कांग्रेस के नेतृत्व वाली संप्रग (यूपीए) सरकार में कथित भ्रष्टाचार को उजागर करने में सूचना के अधिकार (आरटीआई अधिनियम) तथा भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1988 (2018 में संशोधन से पहले) की अतिप्रभावी भूमिका को याद करना उचित होगा। शक्ति, सूचना में निहित है। अतएव, सूचना के अधिकार ने लोगों को सभी आधिकारिक मामलों (बहुत कम अपवादों को छोड़कर) पर सार्वजनिक अधिकारियों से जानकारी माँगने का अधिकार प्रदान दिया। यूपीए शासन के दौरान कथित भ्रष्ट सौदों, अवैधताओं आदि के बारे में आरटीआई प्रक्रिया के माध्यम से प्राप्त जानकारी के आधार पर, सीबीआई, जिसके पास तब कोई कानूनी बंधन नहीं था, उन आरोपों में पूछताछ और जांच शुरू कर सकी थी। विपक्ष में रहते हुए भाजपा ने कांग्रेस के नेतृत्व वाले यूपीए को सत्ता से बाहर करने के लिए इस स्थिति का भरपूर उपयोग किया। और सरकार बना चुकाने के बाद, भाजपा इन कानूनों में छिपे खतरों (भ्रष्टाचारियों के प्रति) से भली-भांति परिचित है। इसलिए उन्होंने व्यवस्थित रूप से आरटीआई अधिनियम को इतना बर्बाद कर दिया है कि यह नागरिकों के सबसे शक्तिशाली उपकरण से एक मृतप्राय अधिनियम में बदल गया है। 2018 में उन्होंने भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1988 में संशोधन किया। इसमें जोड़ी गई नई धारा 17A के अनुसार संबंधित सरकार या नियुक्ति अधिकारी के "पूर्व अनुमोदन के बिना, कोई भी पुलिस अधिकारी इस अधिनियम के तहत किसी जन अधिकारी द्वारा किए गए कथित अपराध की कोई जाँच-पड़ताल नहीं करेगा, जहां कथित अपराध किसी भी ऐसी संस्तुति या लिए गए निर्णय से संबंधित हो, जो उस जन अधिकारी द्वारा अपने आधिकारिक कार्यों या कर्तव्यों के निर्वहन में लिए गए हों।" कौन सी सरकार अपने ही कुकर्मों की जाँच की स्वीकृति देगी? एक ओर जहाँ न्यायमूर्ति आर. एम. लोढा ने 2013 में सीबीआई को 'पिंजरे में बंद तोता' कहा था,  वहीं दूसरी ओर, भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम को नष्ट करके, भाजपा सरकार ने  उनकी मौखिक टिप्पणी को कानूनी वास्तविकता में बदल दिया है। स्पष्ट है, भाजपा का आरटीआई कानून को खोखला करने और सीबीआई को कमजोर करने का असली उद्देश्य अपने कथित भ्रष्ट कार्यों का भविष्य की किसी भी पूछताछ और जांच से बचाव करना था, ताकि उसका परिणाम भी संप्रग (यूपीए) के समान न हो जाय।


अंत में, लेखक जेफरी आर्चर की लोकप्रिय पुस्तक 'ए ट्विस्ट इन द टेल' की एक कहानी के साथ भाजपा की भ्रष्टाचार विरोधी बयानबाजी में एक अनोखी समानता दिखाई देती है, जो इस प्रकार है: इग्नाटियस अगरबी नाइजीरिया का नया वित्त मंत्री था। वह  भ्रष्टाचार का सफाया शुरू करता है और अपना प्रिसिद्धि पता है। उसकी अत्यधिक सच्चाई से प्रभावित होकर, उनके राष्ट्रपति ने उसे यह पता लगाने का काम सौंपा कि कितने नाइजीरियाई लोगों ने स्विट्जरलैंड में अपनी रिश्वत छिपा रखी है। इग्नाटियस एक ब्रीफकेस लेकर स्विस बैंक पहुँचता है। उसके बहुत प्रयास के बावजूद, स्विस बैंकर अपनी गोपनीयता शपथ को तोड़ने से इनकार कर देता है। अंत में, इग्नाटियस स्विस बैंकर की कनपटी पर पिस्तौल तान देता है और उसे जान से मारने की धमकी देता है। फिर भी बैंकर कोई भी गोपनीय जानकारी देने से इनकार करता है। कहानी का ट्विस्ट यह है कि इग्नाटियस, जो वास्तव में स्वयं बेहद भ्रष्ट था, केवल यह पता लगाने के लिए जाँच कर रहा था कि क्या दबाव में आकर स्विस बैंक वास्तव में किसी खाताधारक का नाम उजागर करेगा। उनकी गोपनीयता से प्रसन्न होकर, इग्नाटियस ने 5 मिलियन डॉलर नकद जमा कर दिए, जिसे उसने डकारा था "भ्रष्टाचार उन्मूलक" मंत्री के रूप में 


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