श्रीकांत तालागेरी के लेख Hindu Dharma or Sanātana Dharma? का अनाधिकारिक हिन्दी अनुवाद

श्रीकांत तालागेरी के लेख Hindu Dharma or Sanātana Dharma? का अनाधिकारिक हिन्दी अनुवाद। मूल अंग्रेज़ी लेख (२९ अप्रैल २०२४ को प्रकाशित) के लिए उपरोक्त अंग्रेज़ी शीर्षक पर क्लिक करें। 


हिंदू धर्म अथवा सनातन धर्म? 

श्रीकांत जी. तालागेरी 


क प्रश्न जो निरंतर उठता रहता है, विशेषकर उन हिंदुओं के बीच, जिन्हें अपनी पहचान पर गर्व है, किंतु जो शब्दों तथा नामों पर तर्क-वितर्क करते हुए बाल की खाल निकालने को उद्यत रहते हैं, वह यह है कि क्या हमें अपने धर्म को हिंदू धर्म (Hinduism) कहना चाहिए अथवा सनातन धर्म (Sanatanism) कहना चाहिए, तथा स्वयं को हिंदू या सनातनी। इस प्रश्न का विचार करने वालों का मुख्य तर्क यह है कि हिंदू एक उपाधि या नाम है जो हमें "विदेशियों" या "बाह्य व्यक्तियों" द्वारा दिया गया है, जबकि सनातन हमारे लिए एक आत्म-परिभाषी नाम है।


परंतु क्या सनातन वास्तव में एक आत्म-परिभाषी नाम है, हमारी धार्मिक, सांस्कृतिक या सभ्यतागत पहचान के लिए, या हमारे धर्म के लिए ?

1. प्रारंभिक वैदिक ग्रंथों में, अर्थात् संहिताओं में, सनातन शब्द अथर्ववेद (१०.८.२२,२३) में दो बार आता है (धर्म शब्द के साथ संयुक्त वाक्यांश के रूप में नहीं, वरन् अकेले), और यहां इसका सीधा सा अर्थ है "शाश्वत"। यहाँ इसका प्रयोग ब्रह्मा (या परम सत्य या सर्वोच्च चेतना) के वर्णनात्मक विशेषण के रूप में प्रयोग किया गया है।

2. कालांतर में, सनातन शब्द ब्राह्मण ग्रंथों में बहुत बार आया, किंतु फिर से सदैव धर्म शब्द के बिना, सरल अर्थ "शाश्वत" के रूप में, तथा विभिन्न देवताओं या परम सत्य या सर्वोच्च चेतना के लिए विशेष रूप से प्रयुक्त होते हुए

3. संभवतः (हालांकि मैं इस निष्कर्ष में सुधार के लिए तैयार हूँ, यदि कोई व्यक्ति और अधिक पुराने उद्धरण प्रस्तुत कर सके तो) दोनों शब्दों (सनातन एवं धर्म) वाले संयुक्त वाक्यांश का सर्वप्रथम प्रयोग मनु स्मृति, ४.१३८ और ९.६४ में है। और ये शब्द यहाँ किसी आत्म-परिभाषा की ओर इंगित नहीं करते, बल्कि उस नियम की ओर ध्यान दिलाते हैं, जिसे ये (नैतिकता या सैद्धांतिक सामाजिक व्यवहार के) "शाश्वत नियम" के रूप में वर्णित करते हैं:

Manu Smriti, ४.१३८:

सत्यं ब्रूयात् प्रियं ब्रूयान्न ब्रूयात् सत्यमप्रियम् ।
प्रियं च नानृतं ब्रूयादेष धर्मः सनातनः ॥ 

satyam brūyāt priyam brūyān na brūyāt satyam apriyam.

priyam ca na-anṛtam brūyād eṣa dharmaḥ sanātanaḥ.

जो सत्य है, उसे कहे; जो मन को प्रिय लगने वाला हो, उसे कहे; परन्तु वह न तो अप्रिय सत्य बोले, और न प्रिय असत्य बोले: यही सनातन धर्म (शाश्वत नियम) है। 


Manu Smriti, ९. ६४

नान्यस्मिन् विधवा नारी नियोक्तव्या द्विजातिभिः । 
अन्यस्मिन् हि नियुञ्जाना धर्मं हन्युः सनातनम् ॥

na-anyasmin vidhavā nārī niyoktavyā dvijātibhiḥ.

anyasmin hi niyuñjānā dharmaṁ hanyu sanātanam.

किसी द्विज पुरुष द्वारा किसी विधवा को किसी पुरुष के साथ सहवास (नियोग करने) के लिए नियुक्त नहीं किया जाना चाहिए; जो ऐसा करेगा वह सनातन नियम (शाश्वत नियम) का उल्लंघन करेगा। 

(अनुवादक: मनु स्मृति के उक्त दोनों हिन्दी अनुवाद, मूल लेख में प्रस्तुत अंग्रेजी अनुवादों पर आधारित हैं। अनुवादक का उद्देश्य मूल लेख के निकट होकर चलना होने के कारण ऐसा किया गया है।)

यह देखा जा सकता है कि दोनों में से किसी भी संदर्भ में, यह वाक्यांश (सनातन धर्म) किसी भी तरह की पहचान को नहीं दर्शाता है। वरन् ऐसा प्रतीत होता है कि वाक्यांश का उद्देश्य इस बात पर बल देना है कि कोई सामाजिक या नैतिक कृत्य यदि अनुशंसित है या प्रतिबंधित है, तो उसकी अनुशंसा या प्रतिबंध का दावा किया जाना एक "सनातन" नियमावली के अनुसार है। इसके अतिरिक्त, दूसरे संदर्भ में दिया गया जाति-विशिष्ट संदर्भ इन "सनातन" नियमों की सीमित सामाजिक प्रासंगिकता को स्पष्ट करता है। 

"सनातन" अर्थ देने लिए भी, मनु स्मृति अक्सर अन्य शब्दों का उपयोग अधिक करती है, मुख्यतः "शाश्वत" का। तथा सनातन शब्द अपने आप में (बिना धर्म शब्द के) अन्य विषयों के संदर्भ में अधिक आता है, जिनका सनातन (अनंत-कालिक) के रूप में वर्णित किया जाना अपेक्षित है: ब्रह्मा/ब्राह्मण (१.७; ६.७९); वेद (१.२३; ३.२८४; १२.९४,९९); वैदिक यज्ञ (१.२२); और कुछ सामान्य अन्य नियम-क़ानून जिनका विषय था राजसी कर्तव्य (९.३२५), या अंतर-वर्ण-मिलाप जनित संतानों की जातीय स्थिति (१०.७)।

बाद के ग्रंथों (महाकाव्य और पौराणिक ग्रंथों से शुरू) में भी यही प्रथा अपनाई जाती रही, जहाँ सनातन (अनंत-कालिक) का प्रयोग मुख्यतः दो विषयों के लिए किया गया : क) किसी देवी या देवता की प्राचीनता या महत्ता दर्शाने के लिए; ख) किसी सामाजिक या सैद्धांतिक नियम-क़ानून की पवित्रता सिद्ध करने के लिए 

अतएव, हिंदू धर्म के स्थान पर सनातन धर्म प्रयोग करने की वकालत करने वालों से मुझे वह सबसे पुराना प्राचीन-कालीन  या मध्य-कालीन स्रोत प्राप्त करने में अतीव रुचि होगी जो सनातन धर्म वाक्यांश को वर्तमान में जिसे हम हिंदू धर्म कहते हैं उसके लिए एक पहचानकारी शब्द के रूप में प्रयोग करता है। "धर्म" का अर्थ "रिलिजन (religion)" लिया जा सकता है या नहीं, इस अंतहीन ध्यान-भटकाऊ विवाद द्वारा छिद्रान्वेषण करने वाले तर्कों को अग्रिम तिलांजलि देने के लिए यह स्पष्ट करना उचित होगा कि यहाँ हिंदू धर्म से मेरा तात्पर्य है: हिंदुइज्म (Hinduism) या Hindu religion या हमारी देशज भारतीय राष्ट्रीय-सभ्यतागत-आध्यात्मिक-सांस्कृतिक ("way of life") पहचान। 

इससे भी अधिक महत्वपूर्ण बात यह है कि हिंदू धर्म का अनुयायी हिंदू होगा। सनातन धर्म का अनुयायी कौन होगा: एक सनातनी? किस प्राचीन या मध्यकालीन ग्रंथ में यह सनातनी शब्द आया है? और वह भी, जिसे आज हम हिंदू कहेंगे, उसके नाम या पहचान शब्द के रूप में?

"हिंदू" शब्द के प्रति एक समझाई ना जा सकने वाली चिढ़ से उत्पन्न हुए ये सभी वैकल्पिक शब्द (सनातनीआर्य, आदि) औपनिवेशिक शासन तथा विद्वत्ता के उत्तर में जन्मीं अल्प-विचारित छद्म-राष्ट्रवादी प्रतिक्रियाएँ भर थे, तथा हमारी अपनी आत्म-परिभाषा को किसी तरह से भी, हिंदू शब्द के समान प्रतिबिंबित करने में असमर्थ भी: 

१) संभवतः ये शब्द, औपनिवेशिक काल में पश्चिमी विद्वानों और मिशनरियों द्वारा हिंदुओं के बारे में लिखी गई सभी घिनौनी बातों से प्रभावित या प्रेरित थे। ठीक वैसे ही जैसे भारतीय मूर्तिपूजा, कैनॉनिकल ग्रंथ (अनुवादक: एकेश्वरवादी मतावलंबियों के अनुसार गॉड/अल्लाह प्रदत्त पुस्तकें - यथा बाइबिल, क़ुरआन) के अभाव, तथा बहुदेववाद की मिशनरियों द्वारा आलोचना के प्रत्युत्तर में आर्य समाज ने यह दावा करने का निर्णय लिया कि "शुद्ध", "मूल", तथा "अप्रदूषित" भारतीय धर्म, मूर्ति-रहित तथा एकेश्वरवादी था, तथा इसमें "कैनॉनिकल" ग्रंथ भी थे (वेद), उसी प्रकार इन हिंदू धर्म के पुनर्नामकरण-कर्ताओं ने हिंदू धर्म की आलोचनाओं का उत्तर देने का एक सीधा सा तरीक़ा निकाला - धर्म का ही नाम बदल देना। ध्यान दिया जाना चाहिए कि हमारे धर्म के विशेषण के रूप में सनातन (अनंत-कालिक) शब्द का चुनाव ईसाइयों/मुसलमानों के बेतुके तर्कों द्वारा रचित इस दावे का मुंहतोड़ जवाब है कि उनके धर्म "अनंत-कालिक" हैं (बावजूद इसके कि इन दोनों धर्मों के संस्थापक रहे हैं)।  

२) एक और बात भी है: बहुत से हिंदुओं के मन में इतिहास-फोबिया नामक एक कीड़ा कुलमुलाता रहता है। यह सर्वाधिक परिलक्षित होता है, पुनः-पुनः होने वाले उन प्रयासों में जो इतिहास तथा ऐतिहासिक स्मृतियों को मिटाते हुए छद्म-राष्ट्रवादी तथा दिखावटी-देशभक्ति के आधार पर स्थानों के नाम बदलते रहते हैं। देशभक्ति की प्रदर्शनी लगाने का एक आसान, सस्ता (हालाँकि सरकारी कोष के लिए नहीं, जिसमें जमा करदाताओं के धन से ही सभी नाम-परिवर्तन निष्पादित किए जाते हैं) तथा अकष्टकारी (पुनर्नामकरण-कर्ताओं के लिए) तरीक़ा, जैसा कि मैंने एक अन्य लेख में इंगित किया है। "हिन्दू" शब्द को तिलांजलि देने की यह बेचैनी उसी मानसिकता की एक और अभिव्यक्ति है।      

३) मोटे तौर पर होता यह है कि हिंदू धर्म की मुस्लिम या ईसाई धर्मों से तुलना करके उसे श्रेष्ठ सिद्ध करने के स्थान पर, ये पुनर्नामकरण-कर्ता हिंदू, रणक्षेत्र से इस कायरतापूर्ण बहाने से पलायन करना पसंद करते हैं कि हिंदू धर्म तथा इस्लाम/क्रिश्चनिटी में कोई तुलना संभव ही नहीं है, क्योंकि हिंदू धर्म "रिलिजन" तो बिलकुल नहीं है, जबकि बाक़ी दो तो रिलिजन हैं।     

हिंदू धर्म श्रेष्ठ है, इसलिए नहीं कि यह "सच्चा" है जबकि अन्य दो "झूठे" हैं, बल्कि इसलिए कि हिंदू धर्म में कोई निश्चित धार्मिक हठधर्मिता (dogma) नहीं है: आप किसी भी धार्मिक या दार्शनिक विचार, सिद्धांत या ग्रंथ, या किसी अनुष्ठान में विश्वास या अविश्वास कर सकते हैं, ऐसा करने से कम "हिंदू" हुए बिना। हिंदू विचार बौद्धिक और वैचारिक इंद्रधनुष के लगभग हर संभव रंग को समेटे हुए है, अन्य दो के विपरीत जो निश्चित हठधर्मिता पर आधारित हैं और जिनकी संकीर्ण सीमाएं हैं।

और यहीं पर आकर, सनातन धर्म नाम, हिंदू धर्म के लिए एक सर्वसमावेशी विकल्प के रूप में बौना साबित होता है: हर संदर्भ में जहां इसका उपयोग हमारे ग्रंथों में किया गया है, इसका तात्पर्य अपने स्वयं के विश्वासों को नैसर्गिक रूप से "अनंत-कालिक" मानने वाले किसी ग्रंथ विशेष या उस ग्रंथ को मानने वाले पंथ-विशेष/दार्शनिक मत-विशेष में प्रचलित किसी मान्यता या किसी नैतिक/सैद्धांतिक अथवा सामाजिक दृष्टिकोण से है। यदि अब कोई इसे ("सनातन धर्म" शब्द को) हिंदू धर्म या हिंदुइज्म (Hinduism) शब्द के विकल्प के रूप में उपयोग करना चाहता है, तो इसे पारंपरिक शब्द के रूप में नहीं, बल्कि पूरी तरह से नए अर्थ के साथ पारंपरिक शब्द की आधुनिक और प्रतिक्रियाशील संशोधनवादी व्याख्या के रूप में मान्यता दी जानी चाहिए।

[संयोगवश, मूर्खतापूर्ण राजनीतिक घटनाएँ - जैसे कि द्रमुक नेताओं, या उनके जैसे अन्य लोगों, द्वारा सनातन शब्द के बारे में अपमानजनक टिप्पणियाँ करना - इन संशोधनवादी प्रयासों को अतिरिक्त प्रोत्साहन देती हैं]।


यह तर्क कि "हिंदू" शब्द "विदेशियों" (बाह्य व्यक्तियों) के द्वारा हमें दिया गया था, दो कारणों से अतिशय भ्रामक है:

१) पहचानकारी शब्द जो प्रभावी रूप से भारतीय समाज के (या किसी भी विचाराधीन समाज या इकाई के) सभी वर्गों पर लागू होते हैं, आवश्यकतावश "बाह्य व्यक्तियों" द्वारा दिये गये शब्द ही होते हैं। आर्य शब्द का प्रयोग ऋग्वेद में इसके पुरु रचनाकारों द्वारा केवल पुरु लोगों की और संकेत करने के लिए किया गया था: ऋग्वेद में, पुरु आर्य हैं, और अन्य सभी (पश्चिम और उत्तर-पश्चिम में अनु और द्रुह्यु; दक्षिण में यदु और तुर्वसु; और सुदूर पूर्व में इक्ष्वाकु सहित) गैर-आर्य या दास हैं। ध्यान दें कि ऋग्वेद के रचनाकारों की दृष्टि में, न केवल शेष भारत के अंडमानी, संताल और द्रविड़ भाषी लोग, बल्कि राम और कृष्ण भी गैर-आर्य या दास होंगे। हिंदू के विकल्प के रूप में आर्य शब्द का उपयोग करने का प्रयास इस शब्द की एक अत्यंत नई और संशोधनवादी पुनर्व्याख्या होगी। यह जानते हुए भी कि बाद में और बाद के ग्रंथों ने और अधिक विस्तृत क्षेत्रों और प्रसंगों को सम्मिलित करने के लिए इस शब्द का विस्तार किया (यथा भौगोलिक नाम आर्यावर्त में; अथवा रामायण और महाभारत के बहुत बाद में दर्ज किए गए वर्तमान संस्करणों में, जहां नायकों को अक्सर आर्य के रूप में वर्णित किया गया है; या बुद्ध में, जिन्होंने शब्द को एक नया अर्थ देकर चार आर्य सत्यों की और संकेत दिया), यह शब्द पूरे भारत को परिभाषित करने में कभी समर्थ नहीं रहा।

यही स्थिति किसी भी अन्य "भारतीय मूल" के शब्द -- जिसमें सनातन शब्द भी सम्मिलित है -- के साथ है, जिसे कोई "विदेशी मूल" के शब्द "हिंदू" के "देशज" विकल्प के रूप में प्रचारित करना चाह सकता है। ऐसा इसलिए है क्योंकि केवल एक "विदेशी" के दृष्टिकोण से ही, एक विशिष्ट इकाई के रूप में भारत की एकात्मता, पहचान के पैमाने पर सामान्य रूप से स्पष्ट होगी। भारत के आंतरिक स्रोत आम तौर पर केवल अपने समूह को अन्य भारतीय समूहों से अलग करने के दृष्टिकोण से शब्दों का आविष्कार या उपयोग करते होंगे (जब तक कि बाह्य व्यक्तियों के साथ संपर्क ने उन अन्य भारतीय समूहों से उनकी समानता तथा "बाह्य व्यक्तियों" से उनकी विषमता को स्पष्टता से रेखांकित नहीं कर दिया)। अतएव किसी "आंतरिक व्यक्ति" द्वारा सांस्कृतिक-सभ्यतागत-धार्मिक पहचान के लिए प्रयुक्त आत्म-परिभाषी शब्द सामान्यतया "आंतरिक व्यक्तियों" के एक समूह (बड़ा या छोटा) को निरूपित करेगा, परंतु सारे "आंतरिक व्यक्तियों" ("बाह्य व्यक्तियों" के साथ तुलना में) को नहीं: इस प्रकार का कोई भी परिभाषी या पहचानकारी शब्द सामान्यतया केवल "बाह्य व्यक्तियों" के द्वारा ही दिया जा सकता है। [मैं बार-बार "सामान्यतया" या "आम तौर पर" का प्रयोग कर रहा हूँ, क्योंकि  बहस के लिए तैयार विवादप्रिय भारतीय, तथ्यों के विरुद्ध अंतहीन वाद-विवाद करने के लिए असामान्य (अपवादस्वरूप) परिदृश्य गढ़ने में अतीव सक्षम होते हैं]। 

इस प्रकार, यूरोपीय उपनिवेशवादियों ने दो महाद्वीपों (जहाँ उन्होंने उपनिवेश बनाए) के सभी निवासियों को परिभाषित करने के लिए "अमेरिकन इंडियंस" या "अमेरिंडियन" और "ऑस्ट्रेलियन एबोरिजिनल्स" शब्द गढ़े। यह अकल्पनीय है कि इन दोनों महाद्वीपों के मूल निवासियों के पास पहले से ही (दोनों महाद्वीपों में उपस्थित विस्तृत भौगोलिक क्षेत्रों, अलग-थलग स्थानों, तथा विभिन्न असंबद्ध भाषाओं और संस्कृतियों को देखते हुए) ऐसे कोई सर्वसमावेशी शब्द होते जो बाह्य व्यक्तियों की पहचान की तुलना में उनकी अपनी सर्वसमावेशी पहचान को व्यक्त कर पाते। अतः, आज, दोनों महाद्वीपों में से किसी के भी संदर्भ में, "बाह्य व्यक्तियों" की तुलना में "आंतरिक व्यक्तियों" के लिए एक सर्वसमावेशी नाम देने के किसी भी प्रयास को अनिवार्य रूप से औपनिवेशिक-प्रदत्त नामों -- "अमेरिकन इंडियंस" या "अमेरिंडियन" और "ऑस्ट्रेलियन एबोरिजिनल्स" -- को स्वीकार करना होगा, अथवा इन क्षेत्रों के देशज स्रोतों से किसी पूर्णतः नये सर्वसमावेशी नाम का आविष्कार करना पड़ेगा (और उस नये नाम का आविष्कार किस देशज भाषा विशेष से होगा?)। 

भारत के विषय में, "आंतरिक"-"बाह्य" के छद्म-विवाद के बावजूद, "हिंदू" नाम हालाँकि बाह्य व्यक्तियों (विदेशियोंके द्वारा दिया गया था (और जैसा कि मैंने ऊपर इंगित किया है, वे अनिवार्यतः बाह्य व्यक्ति ही होंगे, जो तार्किक रूप से भारत एवं इसके विविध निवासियों के लिए एक सर्वसमावेशी नाम दे सकें), परंतु यह नाम औपनिवेशिक आक्रांताओं के द्वारा नहीं दिया गया था: यह एक ऐसा नाम है जो अपने विविध रूपों में (जिसमें "इंडिया" तथा "हिंदू" शब्दों के सभी रूपांतर व स्वरूप सम्मिलित हैं) दो सहस्राब्दियों से अधिक पहले से भारत के साथ संपर्क में आये शेष विश्व के लगभग सभी निवासियों द्वारा प्रयोग किया जाता रहा है, यथा पारसियों, यूनानियों, अरबों, तथा चीनियों द्वारा।     

2) और विशेष बात यह है कि अमेरिका या ऑस्ट्रेलिया के मूल निवासियों को दिये गये सर्वसमावेशी नामों के विपरीत, भारत तथा इसके लोगों को दिये गये "बाह्य व्यक्ति"-प्रदत्त सर्वसमावेशी शब्द या नाम मूल रूप से शुद्धतः भारतीय शब्द पर आधारित हैं: सिंधु नदी के नाम पर, जिसे फ़ारसी में हिंदू कहा गया, यूनानी में इंडस, तथा चीनी भाषा में तियान्झू (तियान्झू, सिंधु शब्द के चीनी लिप्यंतरणों में से एक है। ह्वेन त्सांग या ह्वेनसांग ने इसे यिन-यू के रूप में लिप्यंतरित किया था)। पूरे विश्व ने माना कि सभ्यता, संस्कृति और लोगों का ये विशाल, किंतु जटिल, वट-वृक्ष, जो मुख्य रूप से सिंधु नदी के पूर्व में फलता-फूलता था, अपनी विविध शाखाओं और उप-शाखाओं और अविश्वसनीय रूप से अनंत विविधता के साथ, एक इकाई था, जिसका एक सर्वसमावेशी नाम था और एक जटिल पहचान। भारत की एकता और पहचान की इस सार्वभौमिक स्वीकृति पर आधारित इन सभी संबंधित नामों (पैराग्राफ के प्रारंभ में उल्लिखित) को और बल मिला जब मुसलमानों ने हिंदू शब्द को सभी भारतीय मूर्तिपूजकों (पेगन्स्) के लिए एक सर्वसमावेशी शब्द के रूप में स्वीकार किया। 


इस संबंध में, आधुनिक भारतीय संविधान के निर्माताओं ने भी सभी स्वदेशी या भारतीय मूल के धर्मावलम्बियों के लिए हिंदू को सर्व-समावेशी शब्द के रूप में मान्यता दी (विदेशी मूल के धर्मावलम्बियों की तुलना में)। ऐसा करने के लिए उन्होंने एक ग़ैर-समावेशी परिभाषा (अनुवादक: नेगेटिव डेफिनिशन - जो यह बताती है परिभाषित इकाई में कौन "नहीं" आता, बजाय इसके कि कौन "आता" है) उल्लिखित की  (देखें खंड c) (इस प्रकार उन मूढ़ शंकाओं का भी पूर्व-निवारण कर दिया गया जो पूछती थीं कि क्या नास्तिक (एथीइस्ट) तथा संशयवादी (एग्नोस्टिक) भी हिंदू कहे जा सकते हैं), जिसके अनुसार हिंदुओं के लिए बने हुए नियम-क़ानून निम्न सभी पर लागू होंगे: 

"(a) किसी भी व्यक्ति पर, जो किसी भी रूप और व्युत्पत्ति में धर्म से हिंदू है, जिसमें वीरशैव, लिंगायत या ब्रह्म, प्रार्थना या आर्य समाज का अनुयायी सम्मिलित है,

(b) किसी भी व्यक्ति पर जो धर्म से बौद्ध, जैन या सिख है, तथा

(c) उन क्षेत्रों में निवास करने वाले किसी अन्य व्यक्ति पर, जिस पर यह अधिनियम लागू होता है, जो धर्म से मुस्लिम, ईसाई, पारसी या यहूदी नहीं है।"

निजी रूप से हिंदू होने पर गौरवान्वित होने तथा हिंदू धर्म की रक्षा में सक्रिय रूप से लगे होने के बावजूद भी, जो लोग हिंदू शब्द से चिढ़ महसूस करते हैं, तथा इसे किसी अन्य शब्द में बदलना चाहते हैं, उन सभी को यह इंगित किया जाना चाहिए कि हिंदू शब्द उतना ही भारतीय है जितना कि उनके द्वारा गढ़ा जा सकने वाला कोई और शब्द या ऐसा कोई शब्द जो अन्य प्रचलित शब्दों (जैसे सनातन) की संदिग्ध विधियों द्वारा पुनर्व्याख्या से हिंदू को प्रतिस्थापित करने के लिए बनाया जाय। और, यदि उद्देश्य एक संस्कृत शब्द को रचना है, तो हिंदू शब्द उतना ही संस्कृत मूल का है जितना कि सनातन शब्द। इसके अतिरिक्त, इसके (हिंदू शब्द के) अंतर्राष्ट्रीय प्रयोग का दो हज़ार वर्षों से अधिक का इतिहास भी है; अतः इसका प्रयोग करने पर "अति संस्कृत-भक्ति" के आरोप भी नहीं लगाये जा सकते; इंडिया तथा हिंदू के तमिल रूपांतर भी "इन्दिया" व "इन्दु" हैं। 

आइए, हम क्षुद्र राजनीतिक कारणों से या "आंतरिक"-"बाह्य" विषयक अत्यंत भ्रामक विचारों के चलते "भारत" और "हिंदू" जैसे शब्दों के समृद्ध इतिहास व विरासत, तथा एकीकरण-सामर्थ्य  को अस्वीकार न करें।

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