श्रीकांत तालागेरी के लेख Hindus, Hindutva, The BJP Parivar, and TINA का हिन्दी अनुवाद

श्रीकांत तालागेरी के लेख Hindus, Hindutva, The BJP Parivar, and TINA का अनाधिकारिक हिन्दी अनुवाद

मूल अंग्रेज़ी लेख (०१ मार्च २०२३ को प्रकाशित) के लिए उपरोक्त अंग्रेज़ी शीर्षक पर क्लिक करें। 



हिंदूहिंदुत्वभाजपा परिवार, और भाजपा का विकल्प क्या?”


श्रीकांत जी. तालागेरी

 

 

मैं बार-बार यह निर्णय लेता रहता हूं कि मैं राजनीतिक दलों पर कोई और लेख नहीं लिखूंगाऔर केवल अपने विषयों तक सीमित रहूँगा : अर्थात्  ऐतिहासिक (“आर्यन आक्रमण” बनाम “भारतीय उद्गम”); सभ्यता-सम्बन्धी (भारतीय संस्कृति के विभिन्न पहलू) या संगीत (और आवश्यकता पड़ने पर फ़िल्में)। किंतु फिर मैं उस संकल्प को तोड़ता रहता हूं, जब हर दूसरे दिन कोई न कोई नया समाचार मेरे रोष को भड़काता है। संयोग सेपिछले लोकसभा चुनाव के बादमैंने टीवी समाचार चैनल देखना और समाचार पत्र पढ़ना पूरी तरह से बंद कर दिया थाऔर (हिंदुस्तान टाइम्स की हमारी पिछले साल की सदस्यता 31/12/2022 को समाप्त होने के बाद) मेरे घर पर कोई समाचार पत्र भी नहीं आता है। परंतु इंटरनेट तथा मेरे ईमेल के माध्यम सेकोई न कोई समाचार मेरे संज्ञान में आता रहता है। और राजनीतिक दलों पर लेखन से दूर रहने की मेरी सभी मंशाएँ गर्म तवे पर रखी बर्फ की तरह पिघल जाती हैं।


वास्तव में भाजपा द्वारा किए गए (अनुवादक: हिंदुओं व हिंदुत्व के प्रति) विश्वासघात के बारे में लिखना और लिखते रहना समय नष्ट करना है। क्योंकि इससे किसी व्यक्ति को या किसी विषय पर रत्ती भर भी फ़र्क़ नहीं पड़ता। और जो होना तय है, वह वैसे भी होगा। इसके बारे में मेरे लेखन से, मेरी उफनती भावनाओं के बांध का निकास-द्वार खोलने से अधिक कुछ उपलब्ध नहीं होता (और मेरी भावनाओं को बहाव देने से स्थिति में कोई बदलाव नहीं होता; मैं केवल अपना मूड खराब करता हूं)। किंतु एक प्रश्न है जो भाजपा समर्थक बार-बार उठाते रहते हैं। और मैं अपनी अंतरात्मा की आवाज़ को अनसुना करके उसका उत्तर दिए बिना भाजपा की चालबाज़ियों के बारे में लिखना सदा के लिए बंद नहीं कर सकता। प्रश्न यह है कि "अगर भाजपा और मोदी नहीं, तो हिंदुओं के लिए विकल्प क्या है "?


यह प्रश्न कुछ दिन पहले मानुषी YouTube चैनल द्वारा बलराज मधोक पर आयोजित कार्यक्रम में भी किसी ने पूछा था:

https://www.youtube.com/watch?v=9pzdvjW0-Es


वास्तव में यह एक ऐसा प्रश्न है जो हिंदुओंहिंदुत्व और भाजपा पर किसी भी चर्चा में बार-बार आता हैऔर सभी को लगता है कि इस प्रश्न का एकमात्र उत्तर है: "हिन्दुओं के लिए भाजपा के अतिरिक्त कोई विकल्प नहीं है" (“भाजपा का विकल्प क्या?” अंग्रेज़ी: "There is No Alternative" (i.e. TINA)) उपरोक्त कार्यक्रम में भी मधु किश्वर और सुशील पंडित ने थोड़ा-बहुत हाँ-ना के बीच  डांवाडोल के बाद दर्शकों को आश्वस्त किया कि वे केवल भाजपा की कुछ त्रुटियों की ओर इशारा कर रहे हैं, और किसी को यह सलाह नहीं दे रहे हैं कि उन्हें किसे वोट देना चाहिए या किसे नहीं। और इस पूरे विमर्श का निचोड़ यही है: ऐसा नहीं है कि भाजपा द्वारा निरंतर जारी विश्वासघात (अनुवादक: हिंदुओं व हिंदुत्व के प्रति) का संज्ञान किसी को नहीं है; प्रत्येक व्यक्ति, जिसने अपने दिमाग का उपयोग करने की क्षमता पूरी तरह से नहीं खोई हैदेख सकता है कि भाजपा क्या कर रही है। लेकिनजैसा कि मैंने पूर्व में, अपेक्षाकृत शिष्टोचित भाषा में, लिखा है (आज नहीं, बल्कि 1997 में प्रकाशित Time for Stock TakingWhither Sangha Parivar" में | वॉयस ऑफ इंडिया प्रकाशनपृष्ठ संख्या 223-4), "... राष्ट्रीय स्तर पर हिंदू विमर्श, संघ परिवार द्वारा पूरी तरह से हड़प लिया गया है ... जब संघ परिवार हिंदुओं को मृगमरीचिकाओं से ठगता हैतब सचेत हिंदू “कुआँ और खाई” वाली दुविधा में फँस जाते हैं। एक ओर, जहाँ संघ के इस आत्मघाती रास्ते का समर्थन करनाया इसके साथ चलनाउन सब मान्यताओं का उपहास करना है, जिनमें सचेत हिंदुओं का विश्वास हैतो दूसरी ओर, इसका विरोध करना (अनुवादक: हिंदू विरोधी) शत्रुओं के हाथ ब्रह्मास्त्र देने जैसा महापातक है। दोनों ही ओर सेवे हिंदुइज़म और हिंदुत्व की पीठ में छुरा घोंपते प्रतीत होते हैं।"


वीर सावरकर जैसा दिग्गज साथ होने के बावजूद, हिंदू महासभा बहुत पहले चुनावी रूप से अप्रासंगिक हो गई थी। फिर भी, परिवार "हिंदुत्व" क्षेत्र में प्रतिद्वंद्वियों को सहन नहीं करता है 1977 में, जब परिवार पहली बार जनता पार्टी सरकार के एक घटक के रूप में सत्ता में आया थातब उसके दिग्गज नानाजी देशमुख ने सार्वजनिक रूप से उन सभी पार्टियों पर प्रतिबंध लगाने का आह्वान किया था जो "सांप्रदायिक" हैं "यथा हिंदू महासभा और मुस्लिम लीग"!


अस्सी के दशक के प्रारम्भ में, जब बाल ठाकरे ने हिंदुत्व की कमान संभालीतब भाजपा में गहन आंतरिक वाद-विवाद होने लगे (जिनका उल्लेख मीडिया तक जा पहुँचा)। इस विषय पर कि भाजपा शिवसेना के साथ कोई गठबंधन क्यों नहीं करना चाहिएक्योंकि यह "अल्पसंख्यक वोटों" को अलग कर देगा! अंतत: बेहतर चुनावी समझ के चलते गठबंधन किया गया। यह ध्यान दिया जाना चाहिए कि इस " बेहतर चुनावी समझ" का एक बहुत ही व्यावहारिक आधार था: हिंदुत्व के नाम पर शिवसेना का पहला चुनावी अभियान मुंबई में विले पार्ले विधानसभा सीट के लिए हुए उपचुनावों में था (अनुवादक: 1987)जहां शिवसेना ने अपने दम पर दो प्रतिद्वंद्वी प्रत्याशियों को भारी अंतर से धूल चटाई थी। ये दो प्रतिद्वंद्वी क्रमशः कांग्रेस और जनता पार्टी से थेऔर जनता पार्टी के प्रत्याशी को तो दोनों कॉम्युनिस्ट पार्टियों से ले कर के भाजपा तक, सारे विपक्षी दलों का समर्थन प्राप्त था! तब शिवसेना विधानसभा चुनावों के संदर्भ में चुनाव आयोग द्वारा मान्यता प्राप्त पार्टी भी नहीं थीक्योंकि उसने पहले कभी भी कोई विधानसभा सीट नहीं जीती थी (1969-70 के उपचुनाव में वामनराव महादिक की पिछली एकल जीत के अतिरिक्त | मुंबई में परेल विधानसभा क्षेत्र)। अब विले पार्ले सीट शिवसेना के प्रत्याशी (आधिकारिक तौर पर एक "निर्दलीय") रमेश प्रभु (अनुवादक: डॉक्टर रमेश प्रभु MBBS)  द्वारा जीती गई थी। और भाजपा को इस प्रश्न का स्पष्ट उत्तर मिल चुका था कि जब एक अन्य पार्टी दृढ़ता से हिंदुत्व की ध्वजवाहिका बनकर चलती है, तो भाजपा के हिंदू वोट-बैंक के साथ क्या होता है! अतः भाजपा को मजबूर होना पड़ा (पैराग्राफ़ के प्रारम्भ में संदर्भित आंतरिक वाद-विवाद के उपरांत) शिवसेना के साथ गठबंधन करने के लिए।


 

[13 दिसंबर 1987 एक ऐतिहासिक दिन था। मैंने 11 दिसंबर 1987 को विले पार्ले में शिवसेना की विशाल चुनावी रैली में भाग लिया थाऔर मुझे अभी भी याद है कि बाल ठाकरे ने अपने भाषण में चुटकी लेते हुए कहा था कि रैली के दौरान हुई बेमौसम बारिश  जो  उसे बाधित करने में विफल रही  एक संकेत  था, कि  स्वर्ग  से देवता हिंदुत्व के मुद्दे पर अपना आशीर्वाद बरसा रहे थे]।


फिर भीगठबंधन के पूरे कार्यकाल के दौरानभाजपा ने महाराष्ट्र में शिवसेना के विकास को रोकने की पूरी कोशिश कीऔर यह केवल 1992-93 के दंगों के बाद ही सम्भव हुआ कि भाजपा को शिवसेना पर दबाव की रणनीति को कम करने के लिए मजबूर होना पड़ा और वास्तव मेंस्वयं शिवसेना प्रमुख के सामने झुकना पड़ा। इस परिवर्तन का कारण था: शिव सेना प्रमुख बाल ठाकरे द्वारा 1992-93 के दंगों के दौरान संकट की घड़ी में निभाई गई महत्वपूर्ण भूमिका, जिसने उन्हें "हिंदू हृदय सम्राट" की पदवी पर निर्विवाद रूप से स्थापित किया। 


कालांतर में भाजपा की “हिंदुत्व-प्रतिद्वंद्वी-हटाओ” रणनीति को अनेक कारणों से पुनर्जीवन मिला। ये कारण थे:  शिवसेना में विभाजन (मुख्य रूप से 2006 में राज ठाकरे द्वारा म..से. का गठन)और अंततः 2012 में बाल ठाकरे का दुर्भाग्यपूर्ण निधन; साथ-ही-साथ 2014 के लोकसभा चुनावों के पूर्व, दौरान, और पश्चात नरेंद्र मोदी की एक हिंदू नेता की छवि का प्रचंड उत्थान। शिवसेना के शीर्ष पर एक बहुत कमजोर नए नेता (उद्धव ठाकरे) के चलतेभाजपा ने भिन्न-भिन्न विधियों  से शिवसेना पर लगाम लगाने का कार्यक्रम प्रारम्भ किया (यथा केंद्रीय मंत्रिमंडल में शिवसेना का प्रतिनिधित्व कम करनाशिवसेना के वोट-बैंक में कटौती करने का हर संभव प्रयास करनाआदि)और अंततः, 2019 के विधानसभा चुनावों के बाद मुख्यमंत्री पद के विवाद ने गठबंधन को तोड़ दिया। शिवसेना ने कांग्रेस और NCP के साथ मिलकर सरकार बनाई, लेकिन भाजपा ने शिवसेना में फूट डालने में सफलता प्राप्त कीऔर अंततः (अनुवादक: भाजपा के) हिंदुत्ववादी दावों के इस अवांछित प्रतिद्वंद्वी को समाप्त भले न किया गया हो, किंतु उसके पर अवश्य कतर दिए गए, सदा-सर्वदा के लिए। 


[भाजपा भले ही आयकर विभागप्रवर्तन निदेशालयकेंद्रीय जाँच ब्यूरो जैसे राजकीय शस्त्रों के फ़ासीवादी प्रयोग के बलबूते शिवसेना में विभाजन पैदा करने में सफल रहीलेकिन उद्धव ठाकरे के पास वास्तव में दोषारोपण करने के लिए वे स्वयं ही हैं। सत्ता के अहंकार में उन्होंने अपने अलग हुए चचेरे भाई के साथ एकजुट शिवसेना को पुनर्जीवित करने का कोई प्रयास नहीं कियाअन्य शिवसेना नेताओं के साथ तिरस्कार का व्यवहार कियाऔर पार्टी में मुख्य शक्ति केंद्र के रूप में अपने बेटे को बढ़ावा देने के लिए स्वयं को पूर्ण रूप से समर्पित किया। पालघर में दो साधुओं की हत्या के समय उनकी कठोर टिप्पणी ने कई हिंदू मतदाताओं को अलग-थलग कर दिया। कांग्रेस और एनसीपी के साथ उनका गठबंधन अपने आप में एक मामूली बिंदु था (आखिरकार बाल ठाकरे स्वयं भी आपातकाल के दौरान, और उसके बाद हुए चुनावों में भी, इंदिरा गांधी की कांग्रेस का समर्थन करने वाले एकमात्र विपक्षी नेता थे), लेकिन उद्धव ठाकरे ने अपने गठबंधन सहयोगियों को शिवसेना के अन्य नेताओं पर भारी पड़ने दिया और केवल अपने बेटे की स्थिति को मजबूत करने पर ध्यान केंद्रित किया]


तो अबभाजपा हिंदुत्ववादी दावों की एकमात्र सर्वेसर्वा है, भले ही पार्टी और परिवार का हर कार्य हिंदू आदर्शों और सिद्धांतों को नकारता होया हिंदुत्व के हितों का घोर उल्लंघन करता होऔर भले ही यह (अनुवादक: हिंदुत्ववादी दावे) केवल कोलाहल-मात्र हों, जैसे किसी भेड़ों के झुंड की समवेत स्वर में सुनाई देने वाली पुकारजो आज भाजपा में एक विकृत "हिंदुत्व" तत्व का निर्माण करती है


 

इन परिस्थितियों मेंजबकि पूर्व भाजपा समर्थकों के कुछ छोटे समूह या तो चुनावों से दूर रहते हैं या नोटा ("इनमें से कोई नहीं") चुनते हैंअधिकतर सचेत हिंदूजिनमें कई भाजपा के विश्वासघातों के प्रति अपनी आलोचना में बहुत मुखर हैंअंत में जाकर भाजपा को ही मतदान करते हैं। 


राजनीति के कुछ बहुत ही स्पष्ट और नैसर्गिक नियम हैं: यदि कुछ करना किसी राजनीतिक पार्टी के लिए कई मायनों में बहुत लाभदायक हैऔर यदि वही कार्यउसके कुछ पारंपरिक मतदाताओं को अलग-थलग भी कर सकता है और वोटों का महत्वपूर्ण नुकसान भी कर सकता हैतो वह राजनीतिक पार्टी ऐसा करने से पहले दो बारतीन बार और सौ बार सोचेगी। लेकिन अगर राजनीतिक दल को यह पता हो कि उनकी हरकतों से उनके वोटर कितने भी परेशान भले ही हो जाएंवोटों का कोई खास नुकसान नहीं होगातो पार्टी को यह काम करने से पहले एक बार भी सोचने की जरूरत नहीं है: चित भी उनकी और पट भी। भाजपा (जैसी वर्तमान में है , तथा इसके पूर्व अवतार, जनसंघ और जनता पार्टी) को निरंतर अपने मतदाताओं की ओर से अकाट्य और अटल गवाही मिलती रही है कि हिंदुओं की पीठ में छुरा घोंपने से उनके प्रचण्ड हिंदू वोट-बैंक में कोई कमी नहीं आतीजब तक कि एक समानांतर दुष्प्रचार अभियान (उनके सक्रिय समर्थकों और उनके कथित शत्रुओं, दोनों, द्वारा एक साथ संचालित) इस छवि को बनाए रखे कि वे एक हिंदू सांप्रदायिक पार्टी हैं!  


 

केवल 1984 के लोकसभा चुनावों में ऐसा हुआ था जब भाजपा ने अपने मतदाताओं को खो दिया थाजहां पार्टी ने खुले तौर पर उन सभी हिंदू-समर्थक दावों को छोड़ दिया था जो वे 1975 से पहले कर रहे थे (हालांकि उनका “पीठ में छुरा घोंपना” पहले के इतिहास में भी अनुपस्थित कभी नहीं रहा था)। हिंदू मतदाताओं ने (जिन्हें ‘करनी’ नहीं, तो कम-से-कम ‘कथनी’ तो चाहिए ही) उन्हें छोड़ दियाऔर परिणाम चौंकाने वाले थे: भाजपा को (उसके {अनुवादक: जनसंघ/जनता पार्टी से} भाजपा बनने के बाद अपनी पहली लोकसभा में) केवल लोकसभा सीटें मिलीं  और दो सीटें थीं गुजरात में मेहसाणा (सिर्फ इसलिए कि उस सीट ने अपने इतिहास में इससे पहले कभी भी कांग्रेस को वोट नहीं दिया थाऔर उस सीट पर भाजपा एकमात्र बड़ी गैर-कांग्रेसी पार्टी थी) और हनुमकोंडा आंध्र प्रदेश में (केवल एनटीआर की पार्टी तेलुगु देशम के साथ गठबंधन के कारणजो उस चुनाव में इतनी व्यापक रूप से विजयी हुई थी कि उनकी पार्टी का लोकसभा में कांग्रेस के बाद दूसरा सबसे बड़ा प्रतिनिधित्व था)। संक्षेप मेंभाजपा का पूरी तरह से सफाया हो गया थाऔर उन्होंने जो सीटें जीतींवे वास्तव में शून्य के समान थीं 


उसके बादउन्होंने एक त्वरित रणनीतिक-बदलाव किया: विहिप जिसने 1983 में अपनी "गंगाजल एकात्मता रथयात्रा" के साथ अखिल भारतीय सफलता हासिल की थीको बिना समय गँवाए भाजपा की गतिविधियों में शामिल कर लिया गयाऔर पूरे देश में संत सम्मेलनों का आयोजन किया गया। बाल ठाकरे के नेतृत्व वाली उग्रपंथी शिवसेना के साथ गठबंधन ने भाजपा की हिंदुत्व पार्टी की छवि को सुदृढ़ किया। असम में घुसपैठ विरोधी आंदोलन (1979-1985) और शाह बानो फैसले (1985) पर हंगामाऔर अंत में“तुरुप का इक्का": राम जन्मभूमि आंदोलन (जिसने उसी दौरान ज़ोर पकड़ा था और जो मुद्दा बना विहिप और भाजपा द्वारा सार्वजनिक "यात्राओं" की एक लंबी श्रृंखला काजिसकी परिणति हुई 1990 में आडवाणी की रथ यात्रा और अंततः 1992 में ढाँचे के विध्वंस से): ये सभी कदम अंततः भाजपा को 2 सीट (1984) से 85 सीट (1989) पर ले गए, और उसके बाद से पार्टी ने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। 


इन सब से भाजपा ने एक सबक सीखा है: भेड़ों के झुंड को इस बात के लिए तैयार करें कि वे  ‘भाजपा हिंदुत्ववादी पार्टी है’यह चिल्लाते रहें; साथ ही सुनिश्चित करें कि हिंदू विरोधी शक्तियाँ भी इन समर्थक-भेड़ों के साथ सुर में सुर मिला कर भाजपा पर  हिंदू सांप्रदायिक पार्टी” होने के आरोप लगाती रहें। फिर भाजपा को हिंदुओं या हिंदू धर्म के लिए कुछ भी करने का कष्ट नहीं उठाना होगाबल्कि वे किसी भी तरह के दुष्परिणामों (यथा हिंदू वोटों के खो जाने का डर) की चिंता के बिना, किसी भी हद तक पीठ में छुरा घोंपने में लिप्त हो सकते हैं।


इसलिए हम एक बहुत ही बुरे दुष्चक्र में हैं : हिंदू मतदाता तमाम विश्वासघात के बावजूद भाजपा को ही वोट देते रहेंगे क्योंकि "भाजपा का विकल्प क्या?" (English: "There Is No Alternative")और भाजपा को हिंदुओं की पीठ में छुरा घोंपना  बंद करने का कोई कारण नहीं दिखता, क्योंकि वे जानते हैं कि "भाजपा का विकल्प क्या?" के चलते हिंदू मतदाता उन्हें ही वोट करना जारी रखेंगे, चाहे वे जो भी करें


तब विचारशील हिंदू क्या करे? [मैं उस भक्त हिंदू के बारे में बात नहीं कर रहा हूं जो सोचने की परवाह नहीं करता हैऔर केवल अपने देव-तुल्य नेताओं को सिंहासन पर बैठे और सत्ता की रोटियाँ सेंकते देखना चाहता हैचाहे हिंदूहिंदू धर्मभारत और भारतीय संस्कृति का कुछ भी हो]।


 

इस सम्बंध में मैं स्वयं जीवन भर क्या करता रहा हूँ, और अन्य बातें समान रहने, पर भविष्य में क्या करूँगा, यह दर्शाने के लिए मैं अपने जीवनवृत्त के बारे में थोड़ा-बहुत बताना चाहूँगा:


मेरा जन्म 1958 में हुआ था और वोट देने की उम्र 21 साल थी (जब तक कि 1989 के संशोधन ने इसे घटाकर 18 साल नहीं कर दिया गया था)। अगस्त 1979 में जब मैंने 21 वर्ष पूरे किएतो मुझे यह याद नहीं है कि मैंने जनवरी 1980 में लोकसभा चुनाव से पहले मतदाता के रूप में अपना पंजीकरण कराया था या नहीं। हालांकिहमारा परिवार आम तौर पर गैर-कांग्रेसी था और हमने 1977 और 1980 दोनों में जनता पार्टी को वोट दिया था (जिसमें वर्तमान भाजपातत्कालीन जनसंघ​​एक घटक थी) । लोकसभा चुनाव के तीन महीने बाद अप्रैल 1980 में भाजपा का गठन किया गया था।


[वैसे चुनावों की मेरी सबसे पुरानी याद 1967 के ऐतिहासिक लोकसभा चुनावों की हैजब जॉर्ज फर्नांडिस ने हमारे बॉम्बे दक्षिण निर्वाचन क्षेत्र में कांग्रेस के एसके पाटिल को हराया था। उस समय हमारे पूरे मध्यवर्गीय कुनबे ने (पारिवारिक मित्र, सम्बन्धी इत्यादि) जॉर्ज फर्नांडीस को वोट दिया था। मुझे एक बचकानी घटना याद है, जब माताओं और बच्चों के बड़े समूह ने चौपाटी के लिए अपना दैनिक रास्ता तय किया था (तब कोई टीवी नहीं था; चौपाटी पर संध्या-मिलन हमारी शामों का मुख्य आकर्षण था – वह एक सरल और सुखद काल था)हमने अपने पैरों से सड़क पर चॉक से बने जनसंघ के चुनाव चिन्ह (दीपक) को मिटा दिया था। उस समय मैं राजनीति और इसमें शामिल विभिन्न दलों के बारे में कुछ नहीं जानता था। हालाँकि मैं स्कूल में अपने प्रारम्भिक दिनों से ही अपनी सोच से एक हिंदुत्ववादी व्यक्ति बन गया था, किंतु मुझे यह पता नहीं था कि जनसंघ को हिंदुत्ववादी पार्टी माना जाता है। मुझे यह कुछ साल बाद पता चलाऔर फिर मैं जनसंघ का एक प्रचंड प्रशंसक बन गया। लेकिन विडंबनावश, यह आपातकाल के दौरान हुआ कि कोलिन्स और लैपिएर की पुस्तक "फ्रीडम एट मिडनाइट" पढ़ने के बादमैं आरएसएस और हिंदू महासभा के बारे में जागरूक हुआ और दोनों का सदस्य बनने के लिए दृढ़ संकल्पित हो गया। आपातकाल हटने के बादमैंने दोनों संगठनों के बंबई कार्यालयों को ढूँढ निकाला और उनमें सक्रिय रूप से सम्मिलित होने लगा]।


हालाँकिजनता पार्टी के शासन (1977-1979) के दौरानजब मैंने एक नोटबुक में हिंदुत्व पर लेख लिखना शुरू किया थातो आरएसएस के साथ मेरे घनिष्ठ जुड़ाव और जनता पार्टी के तत्कालीन जनसंघ गुट से जुड़े विभिन्न राजनीतिक घटनाक्रमों के फलस्वरूप शीघ्र ही मेरा मोहभंग हो गयाऔर मुझे भान हुआ कि जनसंघ, जनता पार्टी के घटकों में सबसे असैद्धांतिकपाखंडी और अवसरवादी समूह था: 1977 में "जनता पार्टी" में विलय करने वाली विभिन्न पार्टियों में से यह एकमात्र ऐसी पार्टी थीजिसने अपनी कथित विचारधारा को पूरी तरह से त्याग दिया और निर्लज़्ज़ता से हर उस आदर्श के विरोध में जा पहुँची थीजिसके पक्ष में उन्होंने पूर्व में खड़े होने का ढोंग किया था। फिर भीचरण सिंह और समाजवादियों द्वारा पार्टी को विभाजित करने के बादमेरे परिवार में, और वास्तव में बम्बई में, भावना पूरी तरह से जनता पार्टी के पक्ष में थी (और यह महत्वपूर्ण है कि पूरे भारत में जनता पार्टी द्वारा जीती गई 31 सीटों में से सीटें बंबई और कोंकण से थींजबकि महाराष्ट्र की अन्य सभी सीटें कांग्रेस के पास चली गईं थीं)।


[1980 के चुनाव प्रचार के दौरान मुंबई के शिवाजी पार्क में अटल बिहारी वाजपेयी का भाषण भाजपा की बुद्धिहीनता और सिद्धांतहीन रवैये का एक उदाहरण था। उनके द्वारा की गयी एक आलोचना इस्स बारे में थी कि चरण सिंह ने स्पष्ट रूप से (एक चुनावी भाषण में) कहा था कि भारत को इज़राइल के साथ राजनयिक संबंध स्थापित करने चाहिए और हमारे कृषि और डेयरी उद्योगों के विकास में उस राष्ट्र के साथ सहयोग करना चाहिए। वाजपेयी की शिकायत थी: "उन्होंने (चरण सिंह ने) पहले कभी इज़राइल के साथ संबंध स्थापित करने के बारे में क्यों नहीं कहाउन्हें इज़राइल के प्रति उमड़ रहे अपने नए प्यार के बारे में सफ़ाई देनी चाहिए"। इस शिकायत के अनुसार चरण सिंह का इज़राइल के विषय में मत किसी न किसी रूप में एक चुनावी नौटंकी था। हालांकि उस चुनाव के दौरानहम जनता पार्टी समर्थक और चरण सिंह विरोधी थेमुझे यह आलोचना बेहद घृणा-युक्त लगी: मेरी जानकारी में चरण सिंह ने पहले कभी भी इज़राइल की आलोचना नहीं की थीना ही उस राष्ट्र के साथ संबंधों का विरोध किया थातो क्या गलत था अगर वह अब इस विषय में बात कर रहे थे? दूसरी ओर,जनसंघ ने हमेशा इज़राइल के साथ मैत्रीपूर्ण संबंधों के लिए खड़े होने का दावा किया थालेकिन जनता पार्टी में विलय के बादतत्कालीन जनसंघ के नेता अचानक इज़राइल के आलोचक बन गए थे। अपने दृष्टिकोण में परिवर्तन के बारे में समझाने की आवश्यकता वाजपेयी को थीन कि चरण सिंह को!


कुछ दिनों बाद मैं उसी सभा-स्थल पर चरण सिंह की रैली में शामिल हुआ। मैं गया तो था छी-छी करने, लेकिन वाह-वाह करता लौटा: मुझे आश्चर्य हुआ जब चरण सिंह के भाषण में उनके विरोधियों के लिए एक भी अपमानजनक संदर्भ नहीं थाबल्कि उनका भाषण वास्तव में ग्रामीण और कृषि मुद्दों पर एक लंबा और उबाऊ भाषण था। उस व्यक्ति की संजीदगी साफ़ दिखायी देती थीऔर यद्यपि हम उनके विरोधी बने रहेमैंने चरण सिंह के लिए एक वास्तविक सम्मान महसूस कियाविशेष रूप से आडंबरपूर्ण, लोकप्रियता-प्रेमी वाजपेयी की तुलना में। 


हालांकि मेरा यह लेख सम्भवतः इसके लिए सही जगह न होलेकिन मुझे वाजपेयी के चंचल या बुद्धिहीन "वाकपटु" भाषणों का एक और उदाहरण भी याद है। 1977 के चुनाव के दौरानइंदिरा गांधी ने जनता पार्टी को "खिचड़ी पार्टी" के रूप में लताड़ लगाई थीऔर वाजपेयी ने चुटकी लेते हुए कहा कि इंदिरा गांधी ने अपना सारा जीवन पाश्चात्य माहौल में बिताया था और वे यह नहीं जानती कि खिचड़ी भोजन के रूप में कितनी पौष्टिक होती है। जनता पार्टी की जीत के बादपूरे देश में पार्टी कार्यकर्ताओं द्वारा खिचड़ी पार्टियों का जश्न मनाया जाना भी सामने आया था। कुछ महीने बादमहाराष्ट्र में विधानसभा चुनाव हुए। मुंबई के गिरगाँव में अपने चुनावी भाषण मेंवाजपेयी ने मतदाताओं को चेतावनी दी कि वे कांग्रेस को वोट न दें क्योंकि केंद्र में जनता पार्टी सत्ता में थीऔर उनके लिए राज्य में एक अलग पार्टी चुनना अच्छा नहीं होगा (फ़ासीवादी प्रवृत्ति तब भी स्पष्ट थी): वाजपेयी की वाकपटु उद्घोषणा थी, "अगर महाराष्ट्र के लोग अपनी अलग खिचड़ी पकाना चाहते हैं तो ठीक हैलेकिन याद रखना खिचड़ी केवल बीमार लोग खाते हैं" स्पष्ट थाविदेश मंत्री के रूप में कुछ महीनों के अनुभव ने न केवल उन्हें इज़राइल के साथ दोस्ती, बल्कि खिचड़ी के लाभ भी भुला दिये था!]


जो भी होहमने (हमारे परिवार ने) 1980 में जनता पार्टी को वोट दिया था। कुछ महीने बादभाजपा का गठन हुआऔर अब भाजपा एक नख-शिख सेक्युलर घोषणापत्र के साथ सामने आई, जिसका अल्प प्रसव काल सम्भवतः “सेक्युलर” जनता पार्टी के गर्भ में बीता था। हर बीतते दिन के साथ मुझे भाजपा से उत्तरोत्तर विरक्ति होने लगीऔर 1984 मेंहालांकि हमारे घर के बाकी मतदाता भाजपा और वाजपेयी के प्रति वफादार बने रहेमैंने दृढ़ता से एक निर्दलीय उम्मीदवार सुधीर हेंड्रे को वोट दियाजिन्हें हिंदू महासभा का समर्थन प्राप्त था। मुझे पता था कि वह निश्चित रूप से हारेंगेलेकिन किसी ने भी यह उम्मीद नहीं की थी कि भाजपा इतनी बुरी तरह हार जाएगी कि वह सीटों (या प्रभावी रूप से शून्य) पर आ जाएगी। [इस लगभग विनाश ने भाजपा को भान कराया कि उसके अनुयायियों के लिए यह महत्वपूर्ण नहीं था कि भाजपा ने क्या किया बल्कि यह कि भाजपा ने क्या कहा तभी से “कथनी से हिंदू, करनी से सेक्युलर” की दोहरी नीति ही भाजपा की अटूट सफलता का रहस्य रही है ]


इससे सर्वाधिक क्षति यदि किसी को हुई है तो वे हैं हिंदू धर्म और भारतीय संस्कृति - और विचारशील हिंदू, जो हमेशा स्वयं को एक दुविधा में पाते हैं कि उन्हें किसे वोट देना चाहिए 


 

1984 के बादभाजपा की त्वरित वापसी (असम घुसपैठिएविहिपबाल ठाकरेशाह बानो फैसलाऔर अंततः अयोध्या) इतनी प्रचण्ड थी कि मैं एक बार फिर इस जाल में फंस गया किभाजपा की प्रवृत्ति भले ही विश्वासघाती और स्वार्थलोलुप क्यों न होवह अब पूरी तरह से अपने ही हिंदुत्ववादी बयानबाजी के जाल में फंस गयी हैऔर निश्चित रूप से उसे अपने विश्वासघाती व्यवहार को समाप्त करना होगा और अपने हिंदू मतदाताओं की अपेक्षाओं को पूरा करने का प्रयास करना होगा। भाजपा के साथ मेरी सतर्कतापूर्ण आसक्ति  1985-1996 तक चली (जब मुख्यतः बाल ठाकरे और विहिप के उग्रपंथ भाजपा को थामे हुए थे)और यह मेरे जीवन का एकमात्र काल था जब मैंने वास्तव में भाजपा को वोट दिया था


1996 में (बहुत कम समय के लिए) भाजपा के पहली बार सत्ता में आने के कुछ दिनों के भीतर ही उसने अपना असली चेहरा दिखाना शुरू कर दिया थाऔर उसके बाद के चुनावों में (2004 और 2019 में दो चुनावों को छोड़कर) मैंने हमेशा, या तो मतदान नहीं किया है, या नोटा पर अपनी मुहर लगा दी (उस आधे-अधूरे और प्रभावहीन विकल्प के आने के पश्चात)। उन दो चुनावों में (2004 और 2019 में), दोनों बार, भाजपा के विश्वासघात का पूर्ण पंचवर्षीय अनुभव करने के बादमैंने भाजपा के "एकमात्र विकल्प" के रूप में (मेरे दक्षिण मुंबई निर्वाचन क्षेत्र में) कांग्रेस को वोट दिया। राज ठाकरेजो मेरी राय में आज के सबसे बुद्धिमान और मुखर राजनेताओं में से एक हैं (हालांकि असफल और कुछ नकारात्मक पहलुओं के साथ)ने 2019 के चुनावों के दौरान अपने चुनावी भाषणों में एक बहुत ही बुद्धिमत्तापूर्ण और विचारणीय टिप्पणी की थी: उन्होंने ध्यान दिलाया कि जब कांग्रेस सत्ता में होती है तो हम निर्बाध रूप से कांग्रेस सरकार को कोसते और उसकी आलोचना करते हैंलेकिन जब हम विपक्षी दल के शासन के एक कार्यकाल का अनुभव करते हैंतो हमें पता चलता है कि कांग्रेस सरकार वास्तव में कम ख़राब विकल्प थी। [नोट: अब जबकि राज ठाकरे भाजपा के साथ अधिक मित्रवत हैंवह इन भावों को सम्भवतः दोहरा न सकें]।


लेकिन अतीत में मैंने जो किया (बिल्कुल वोट नहीं देनाया नोटा वोट देना) अग्रलिखित प्रश्न का आदर्श उत्तर नहीं हो सकता है: "तब विचारशील हिंदू क्या करे? अतीत में मेरे लिए यही एकमात्र विकल्प थाऔर सम्भवतः भविष्य में भी मेरे लिए एकमात्र विकल्प होलेकिन यह हिंदू धर्महिंदुत्व और भारतीय संस्कृति और सभ्यता के भविष्य के लिए एक तार्किक चुनावी समाधान नहीं है।


 

हिंदू मतदाताओं के लिए एकमात्र तार्किक विकल्प यह है कि वे अपने वोटों से दिखा दें कि वे भाजपा के हिंदुत्व से संतुष्ट नहीं हैं। 1984 मेंऔर फिर (कुछ सीमा तक) 2004 मेंहिंदू मतदाताओं ने कांग्रेस को सत्ता देकर भाजपा के छद्म-हिंदुत्व के साथ अपना पूर्ण मोहभंग प्रदर्शित किया था। अबफिर से 20 वर्षों के बादतीन कारणों से इतिहास खुद को दोहराने नहीं जा रहा है: (ए) कांग्रेस पूरी तरह से मृतप्राय हैऔर इसका एकमात्र चुनावी प्रभाव यह है कि वह “भाजपा का विकल्प क्या?” (TINA) भाव को और सुदृढ़ बनाती है: गांधी परिवार अब भाजपा के लिए सबसे प्रभावशाली चुनावी शस्त्र का पर्याय है; (बी) विचारशील भाजपा मतदाताओं का स्थान अब बड़े पैमाने पर भक्त मतदाताओं द्वारा ले लिया गया है; और (सी) चुनावी जीत सुनिश्चित करने के मामले में भाजपा अब कहीं अधिक शक्तिशाली फ़ासीवादी ताकत है। यह लगभग निश्चित है कि भाजपा की अधिकाधिक संख्या के साथ सत्ता में वापस आने की संभावना हैऔर उस स्थिति में वह हिंदुत्व के अपने सभी आडम्बरों को उतार फेंकेगी और हिंदू धर्म और भारतीय संस्कृति के विनाश के लिए अपने पूर्ण भस्मासुर-रूप में आ जाएगी। मतदाताओं ने भाजपा को बेझिझक, निर्बाध रूप से अपने वर्तमान पथ पर अग्रसर रहने का चुनावी वरदान दे दिया होगा


ऐसी स्थिति में केवल एक ही समाधान है: वे सभी हिंदू राजनीतिक और बौद्धिक शक्तियाँ जिनका भाजपा के विश्वासघात से मोहभंग हो गया होउन्हें एक साथ आना चाहिए और एक पूर्णरूपेण एवं यथार्थरूपेण हिंदू राजनीतिक पार्टी का गठन करना चाहिए, जिसके पास एक सांगोपांग, पूर्णतः पल्लवित हिंदुत्ववादी एजेंडा हो। और इस पार्टी को एक नवीन राजनीतिक शक्ति के रूप में चुनावों में सम्मिलित होना चाहिए (जहाँ संभव होवहाँ छोटे-छोटे जातीय या क्षेत्रीय दलों के साथ गठजोड़ करकेयदि ऐसे दलों को हिंदुत्व विचारधारा से कोई आपत्ति नहीं हो तो)।


"लेकिन क्या यह समाधान (अगर यह किसी भी सीमा तक प्रभावी साबित होता है) निश्चित रूप से भाजपा के वोटों में कटौती नहीं करेगाऔर सेक्युलर दलों की सहायता नहीं करेगा?" अवश्य करेगा, यही तो मुख्य उद्देश्य है जब तक भाजपा को यह नहीं लगता कि उसके हिंदू वोट बैंक पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा हैतब तक वह अपने विश्वासघात को रोकने का कष्ट नहीं उठाएगी। एक बार इस तरह की एक वैकल्पिक हिंदू पार्टी भाजपा के वोट काटने की क्षमता के साथ अखिल भारतीय स्तर पर चुनावी अखाड़े में प्रवेश करती हैतो भाजपा (यदि उसे थोड़ी सी भी समझदारी है) को उस पार्टी के साथ गठबंधन करना होगा (यदि यह वैकल्पिक हिंदू पार्टी पर्याप्त चुनावी क्षमता प्रदर्शित कर पाती है) और फिर भाजपा हिंदुओं और भारतीय संस्कृति के लिए कुछ तो करने के लिए बाध्य होगी। यही एकमात्र उपाय है


दो बहुत बड़ी बाधाएँ हैं:


1. विभिन्न हिंदू विचारधारा वाले लोगों और समूहों के विभिन्न व्यक्तिगत अहंकारनिहित स्वार्थ और अन्य पूर्वाग्रह जो उन्हें एक साथ आने और सफलतापूर्वक इस तरह के मार्ग का पालन करने से रोकेंगे।


2. निम्नलिखित तीनों समूह इस नवीन हिंदू विकल्प को तुरंत अपने निशाने पर लेंगे और उसे उसकी शैशवावस्था में ही नष्ट कर देंगे: भाजपा के हाथों के शक्तिशाली हथियार (आयकर विभागप्रवर्तन निदेशालयकेंद्रीय जाँच ब्यूरो आदि)नासमझ भक्तों की शक्तिशाली सेना जो पिछले दशक में पूरे भारत में बनाई गई हैऔर ब्रेकिंग इंडिया शक्तियाँ (जिनके लिए भाजपा सरकार वास्तव में सबसे आदर्श स्थिति है)


जो भी हो, हिंदुत्व और भारत को अंधकारमय भविष्य से बचाने का यही एकमात्र उपाय है। अन्यथानिश्चित रूप सेवोट नहीं देना तथा NOTA दबाना अभी भी (जो निस्सन्देह बहुत प्रभावहीन हैं) विकल्पों के रूप में है

 

[एक फुटनोट के रूप मेंमैं यह जोड़ना चाहता हूं कि मेरे लिए व्यक्तिगत रूप सेहिंदू-हिंदुत्व का विषय तीन समान रूप से महत्वपूर्ण चिंताओं में से एक विषय हैअन्य दो हैं: परिस्थितिकी-पर्यावरण सम्बन्धीऔर सामाजिक-आर्थिक-न्याय सम्बन्धी विषय। अपने दृष्टिकोण और नीतियों में, भाजपा इन तीनों के विरोध में खड़ी है, और मैं वास्तव में किसी भी संभावित परिदृश्य की कल्पना नहीं कर सकता जिसमें एक वैकल्पिक राजनीतिक गठन हो, जिसके लिए ये तीनों विषय महत्वपूर्ण हों। अपेक्षा करना तो दूर ऐसे विकल्प के उभरने की आशा करना भी एक असंभव परिकल्पना है। इसलिए मैंने अपने लेख को इन तीनों विषयों में से केवल प्रथम विषय तक सीमित  रखा है।] 


 

अनुवादक: उपसंहार (Epilogue) तथा परिशिष्ट (Postscript, post-postscript) अनुवाद में सम्मिलित नहीं किए गए हैं, तथा मूल अंग्रेज़ी लेख में देखे जा सकते हैं।

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