श्रीकांत तालागेरी के लेख India or Bharat? का हिन्दी अनुवाद

श्रीकांत तालागेरी के लेख India or Bharat? का अनाधिकारिक हिन्दी अनुवाद। मूल अंग्रेज़ी लेख (०९ सितंबर २०२३ को प्रकाशित) के लिए उपरोक्त अंग्रेज़ी शीर्षक पर क्लिक करें। 


इंडिया या भारत?

श्रीकांत जी. तालागेरी 

क्या "इंडिया" नाम को हटाकर भारत का नाम केवल "भारत" रखा जाएगा? मैंने पिछले कुछ वर्षों में समाचार पत्र और समाचार पढ़ना बंद कर दिया है, और मैं बस तभी उन पर ध्यान देता हूँ, जब कोई विशेष समाचार मेरे संज्ञान में लाया जाता है। मेरे संज्ञान में इस "विवाद" पर देवदत्त पटनायक का एक ट्वीट लाया गया, जिससे मुझे पता चला कि इस संदर्भ में एक "विवाद" चल रहा है।

मैं नहीं जानता कि क्या यह वास्तव में सच है या क्या यह केवल कुछ संयोगवश हुई घटनाओं के कारण कई लोगों द्वारा बनाई गई एक धारणा भर है। इंटरनेट पर सरसरी खोज से अल जज़ीरा का एक लेख सामने आया जिसमें इन घटनाओं को उल्लिखित किया गया है:

"प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार द्वारा आधिकारिक निमंत्रण पत्रों पर देश को भारत के रूप में संबोधित करने के बाद से एक विवाद ने भारत को जकड़ लिया है, जिससे अनुमान लगाये जा रहे हैं कि क्या नाम बदला जाएगा।

इस सप्ताह के समूह 20 (जी20) शिखर सम्मेलन में भाग लेने वाले मेहमानों को मंगलवार को भेजे गए रात्रिभोज निमंत्रण में , द्रौपदी मुर्मू को उनके सामान्यतया प्रयोग में आने वाले संबोधन "President of India" के बजाय "President of Bharat" के रूप में संदर्भित किया गया है [अनुवादक: अंग्रेज़ी संबोधन, क्योंकि निमंत्रण पत्र अंग्रेज़ी में प्रकाशित हैं]

उसी दिन, सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के एक वरिष्ठ प्रवक्ता के एक ट्वीट में कहा गया कि मोदी "Prime Minister of Bharat" के रूप में इंडोनेशिया में दक्षिण पूर्व एशियाई देशों के संगठन (आसियान) के शिखर सम्मेलन में भाग ले रहे थे।"


जैसा कि मैंने कहा, मैं नहीं कह सकता कि केवल कुछ घटनाओं से निकाला गया निष्कर्ष तर्कोचित है या नहीं, और क्या भारत सरकार वास्तव में "इंडिया" नाम को हटाकर केवल "भारत" नाम प्रयोग करने के बारे में सोच रही है यह मोदी और भाजपा सरकार के आलोचकों का भय मात्र हो सकता है।


दूसरी ओर, यह बात भी ठीक है कि चुनावों से पहले कुछ भी संभव है: कोई भी विशुद्ध रूप से सांकेतिक काम संभव है, जो विवादों को जन्म दे और हिंदू मतदाताओं को भाजपा के पीछे ध्रुवीकृत करे, वास्तव में हिंदुओं या हिंदू संस्कृति को कोई ठोस लाभ दिए बिना। अतएव हमारे पास यूसीसी (समान नागरिक संहिता) की अवधारणा है - एक ऐसी मृगमरीचिका जो विवाद तथा ध्रुवीकरण जैसे मरू-सरोवरों को जन्म देगी, तथा अपना उद्देश्य पूरा करने के पश्चात, पुनः रेत का निष्क्रिय ढेर बन जायेगी, ठीक वैसे ही, जैसे सीएए को रेत का निष्क्रिय ढेर बना दिया गया है (नागरिकता संशोधन अधिनियम 2020: मेरा लेख देखें "हिंदू धर्म बनाम हिंदुत्व - ऑक्सिज्म बनाम ऑक्सत्व")। जबकि (इस सबके बीच) वास्तविक हिन्दू हित के मुद्दे, जिनका क्रियान्वयन कोई विवाद भी संभवतः उत्पन्न न करे, उपेक्षित रहेंगे: यथा संविधान के अनुच्छेद 25-30 की विस्तृत व्याख्या ताकि हिंदुओं को भी अन्य सभी भारतीय नागरिकों के समान अधिकार मिलें। न तो ये मुद्दे वांछित विवादों का कारण बनेंगे और न परिणामस्वरूप हिंदू वोटों का ध्रुवीकरण होगा, तथा साथ ही साथ, न ही राजनेताओं को रोका जा सकेगा (भाजपा राजनेताओं सहित): हिंदू मंदिरों के धन और संपत्तियों के दुरुपयोग और लूट से।


[अनुच्छेद 25-30 की विस्तृत व्याख्या से वास्तव में हिंदू धर्म सशक्त होगा, और हिंदू संप्रदायों और समूहों को इन अनुच्छेदों का लाभ लेने के लिए स्वयं को ग़ैर-हिन्दू सिद्ध करने जैसा कृत्य नहीं करना पड़ेगा, जैसा कि रामकृष्ण मिशन को एक बार मजबूर होकर करना पड़ा था। लेकिन ऐसे सुधारों से (अर्थात् अनुच्छेद 25-30 की विस्तृत व्याख्या जैसे) "अल्पसंख्यकों" की प्रतिक्रिया नहीं भड़केगी और परिणामस्वरूप हिंदू मतदाताओं का ध्रुवीकरण नहीं होगा, क्योंकि ऐसे सुधारों से अल्पसंख्यकों की कोई हानि नहीं होगी: और देखा जाय तो, बीएमएसी (बाबरी मस्जिद एक्शन कमिटी) के सैयद शहाबुद्दीन एकमात्र सांसद थे जिन्होंने इस सुधार के लिए संसद में एक विधेयक पेश करने का गंभीरता से प्रयास किया था। इस विधेयक को, जैसा अपेक्षित था, भाजपा से कोई समर्थन नहीं मिला, क्योंकि सभी दल हिंदू मंदिरों के धन और संपत्तियों को लूटने के अपने अधिकार को सुरक्षित रखने के लिए एकजुट हैं, जबकि यही अनुच्छेद उन्हें मुस्लिमों और ईसाइयों के धन और संपत्तियों को लूटने में सक्षम होने से रोकते हैं।]


किंतु इंडिया बनाम भारत के प्रश्न पर लौटते हुए, अल जज़ीरा का वही लेख ठीक-ठीक बताता है: "भारतीय संविधान में, दुनिया के सबसे अधिक आबादी वाले देश को इंडिया और भारत के रूप में जाना जाता है। हिंदुस्तान (उर्दू में "हिंदुओं की भूमि") देश के लिए दूसरा शब्द है। तीनों नाम आधिकारिक तौर पर तथा जनता द्वारा भी अदल-बदल कर  उपयोग किए जाते हैं।

हालाँकि, दुनिया भर में, इंडिया सबसे अधिक प्रयोग किया जाने वाला नाम है। "

 

यूँ तो मैं आम तौर पर शशि थरूर से दूरी बनाये रखना चाहूँगा, किंतु इस विषय में उन्होंने जो कहा है, जो कि अल जजीरा ने उद्धृत किया है, वह भी उचित विश्लेषण है:

 

"हालांकि इंडिया को 'भारत' कहने में कोई संवैधानिक आपत्ति नहीं है, जो कि देश के दो आधिकारिक नामों में से एक है, मुझे उम्मीद है कि सरकार इतनी मूढ़ नहीं होगी कि 'इंडिया' से पूरी तरह से छुटकारा पा ले, जिसकी ब्रांड वैल्यू बेशुमार है, सदियों से,” भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस पार्टी के विधायक शशि थरूर ने एक्स पर पोस्ट किया, जिसे पहले ट्विटर के नाम से जाना जाता था।

उन्होंने कहा, "इतिहास को फिर से जीवंत करने वाले नाम, एक ऐसा नाम जिसे दुनिया भर में मान्यता प्राप्त है, पर अपना दावा छोड़ने के बजाय हमें दोनों शब्दों का उपयोग जारी रखना चाहिए।" "

 

यह "बहस" सभी प्रकार के मूर्खतापूर्ण या स्पष्ट रूप से गलत बयानों और टिप्पणियों को उठा रही है, और हमारी भूमि के तीन नामों के संबंध में सभी प्रकार के अनावश्यक विवादों को भी उठा रही है। मैं इस विषय को निम्नलिखित बिंदुओं के माध्यम से स्पष्ट करना चाहूँगा:

 

I. त्रुटिपूर्ण वक्तव्य।

II. इंडिया, हिंदुस्तान और भारत।

III. कौन सा "भरत"?




I. त्रुटिपूर्ण वक्तव्य


अल जज़ीरा में प्रकाशित लेख में कुछ त्रुटिपूर्ण कथन भी हैं:

 

"यह नाम (भारत) एक संस्कृत शब्द है जो लगभग 2,000 साल पहले लिखे गए ग्रंथों में पाया गया है। यह एक अस्पष्ट रूप से परिभाषित क्षेत्र, भारतवर्ष को दर्शाता है, जो आज के भारत की सीमाओं से परे फैला हुआ है और इसमें आज के इंडोनेशिया को भी सम्मिलित किया जा सकता है। "

 

हाँ, यह क्षेत्र निश्चित रूप से "भारत की वर्तमान सीमाओं" से परे फैला हुआ है क्योंकि भारत की वर्तमान सीमाएँ भारत के पारंपरिक क्षेत्र को नहीं दर्शाती हैं, बल्कि भारत की केवल एक छोटी भूमि को दिखाती हैं जिसे अंग्रेजों ने देश का विभाजन करते समय छोड़ दिया था लेकिन " भारतवर्ष " का विस्तार निश्चित रूप से इंडोनेशिया तक तो नहीं था! यदि तर्क यह है कि "इंडोनेशिया" और "ईस्ट इंडीज" नाम औपनिवेशिक लोगों द्वारा सोचे गए किसी ऐसे विचार पर आधारित थे, जिन्होंने उन्हें ये नाम दिए थे, तो उस पहचान का आधार "भारतवर्ष" नाम नहीं होना चाहिए। उस स्थिति में, हमें "भारतवर्ष" नाम का अर्थ अमेरिकी महाद्वीप तक भी विस्तृत करना  चाहिए, क्योंकि यूरोपीय आक्रमणकारियों द्वारा उस भूमि के लोगों को "इंडियन" कहा जाता था।


अल जज़ीरा आगे लिखता है:

"भाजपा ने पहले ही उन नगरों और स्थानों का नाम बदल दिया है जो मुगल और औपनिवेशिक काल से जुड़े थे। उदाहरण के लिए, पिछले साल, नई दिल्ली में राष्ट्रपति भवन में मुगल गार्डन का नाम बदलकर अमृत उद्यान कर दिया गया था।

आलोचकों ने कहा कि नए नाम भारतीय इतिहास से मुगलों को मिटाने का एक प्रयास है, जो मुस्लिम थे और उन्होंने लगभग 300 वर्षों तक उपमहाद्वीप पर शासन किया था।"


मैं मोटे तौर पर इससे भी सहमत हूं। लेकिन उस व्यापक तरीके से नहीं जैसा कि लेख में बताया गया है। हम किसी भी प्रकार के इतिहास को मिटा नहीं सकते और हमें मिटाना भी नहीं चाहिए। जैसा कि सीता राम गोयल बार-बार कहते थे, आवश्यकता ऐतिहासिक स्मृतियों पर प्रतिबंध लगाने या उन्हें मिटाने की नहीं, बल्कि उन्हें जीवित रखने की है। इतिहास तो इतिहास होता है − इतिहास किसी का भी हो। सीता राम गोयल ने कुरान पर प्रतिबंध लगाने की याचिका का विरोध किया था, क्योंकि वह चाहते थे कि हिंदुओं को कुरान में जो कहा गया है, उससे अनजान न बनाया जाए: वह चाहते थे कि लोग पढ़ें और समझें कि यह वास्तव में क्या दर्शाता है। इसी तरह, संपूर्ण भारतीय इतिहास, भारतीय इतिहास है: हमें यह जानना और याद रखना चाहिए कि प्रत्येक ऐतिहासिक चरण क्या दर्शाता है, न कि इसे अभिलेखों और स्मृतियों से मिटा देना चाहिए


लेकिन स्थानों के नाम बदलने के विषय में, उन शहरों और कस्बों के नामों को बदलना मान्य है, जिनके मूल रूप से भारतीय नाम थे और जिन्हें दूसरों द्वारा बदल दिया गया था: उदाहरण के लिए इलाहाबाद बनाम प्रयागराज। लेकिन यह उन इमारतों, सड़कों, रेलवे स्टेशनों, कस्बों और शहरों आदि का नाम बदलने पर मान्य नहीं है, जिनके नाम उनके मूल संस्थापकों या निर्माणकर्ताओं के नाम पर रखे गये थे, चाहे वे संस्थापक या निर्माणकर्ता कोई भी हों। यह 1984 के ऑरवेलियन संसार में इतिहास को मिटाने और उसका मिथ्याकरण करने के समान है।


मुझे हाल ही में इस "बहस" के विषय में ज्ञात हुआ, क्योंकि किसी ने मुझे देवदत्त पटनायक का एक ट्वीट भेजा था। हालाँकि मैं दो व्यक्तियों के बीच के किसी विवाद विशेष के विवरण में नहीं जाना चाहता, जिसमें दोनों ही आंशिक रूप से सही और आंशिक रूप से गलत थे, किंतु उस ट्वीट में निम्नलिखित कथन का उत्तर दिया जाना चाहिए:'

 

"सान्याल कहते हैं: दाशराज्ञ युद्ध पश्चिमी पंजाब (पाकिस्तान) में पुरुष्णी या रावी के तट पर घटित हुआ था तथ्य: यह रावी के तट पर शुरू अवश्य हुआ था लेकिन बाद में ऋग्वेद 7.19 के अनुसार अंतिम चरण के लिए यमुना में चला गया। इस युद्ध के परिणामस्वरूप कुरु साम्राज्य की स्थापना हुई, जो कि जो कि कुरूक्षेत्र से मेल खाता है।"

 

जैसा कि पिछले अवसरों पर जब मैंने उनका उल्लेख किया था, पटनायक उन विषयों (भाषा विज्ञान, ऋग्वेद, आदि) में उलझ जाते हैं, जिनसे वे पूरी तरह से अनभिज्ञ हैं:

1. दाशराज्ञ युद्ध पश्चिमी पंजाब में परुष्णी या रावी के तट पर "घटित" अवश्य हुआ था, किंतु यह कहना ठीक नहीं होगा कि यह युद्ध वहाँ "प्रारंभ" होकर, "बाद में" यमुना की ओर पहुँच गया। दाशराज्ञ युद्ध से तात्पर्य केवल पश्चिम में परुष्णी पर घटित युद्ध से है। पूर्व में, यमुना पर लड़ाई, परुष्णी पर लड़ाई से जुड़ी नहीं थी, हालांकि दोनों ही सुदास के सर्वत्र विजय अभियान का हिस्सा थे। पश्चिमी मोर्चे के शत्रु (बाद के ईरानी , ​​अर्मेनियाई , ग्रीक और अल्बानियाई लोगों के पूर्वज) और अधिक पश्चिम की ओर अफगानिस्तान में चले गए, जहां ऋग्वेद और ईरानी ग्रंथों और परंपराओं दोनों में उद्धृत वार्षागिर युद्ध में उनका फिर से सुदास के वंशजों (सहदेव और सोमका) से सामना हुआ। पौराणिक एवं ऐतिहासिक काल में पूर्वी मोर्चे के शत्रु भारत में ही रहे।

 

2. इस युद्ध का परिणाम कुरु साम्राज्य की स्थापना नहीं था "जो कि कुरूक्षेत्र से मेल खाता है"। सुदास की लड़ाई प्रारंभिक ऋग्वैदिक काल में हुई थी, जबकि कुरु साम्राज्य एक हजार साल से भी अधिक समय बाद ऋग्वैदिक काल के नवीनतम भाग में स्थापित किया गया था (इतने समय बाद कि ऋग्वेद में कुरूओं का कोई संदर्भ नहीं है)। और, जबकि सुदास और कौरव दोनों पुरु थेउपलब्ध अभिलेखों से यह स्पष्ट नहीं है कि वे पुरुओं की एक ही शाखा से थे या उपजातियों के थे ।

 

और जहां तक ​​" कुरुक्षेत्र " की बात है, यह उस क्षेत्र का उत्तर-कुरु (और उत्तर-ऋग्वैदिक) नाम है, जिसे ऋग्वैदिक काल में वर-आ-पृथिव्या या नाभा-पृथिव्या के नाम से जाना जाता था। कुरुक्षेत्र शब्द संपूर्ण ऋग्वेद या यहां तक ​​कि निम्नलिखित तीन वेद संहिताओं (यजुर्वेद , सामवेद और अथर्ववेद) में भी नहीं पाया जाता है। लेकिन वह क्षेत्र, पूर्वलिखित नामों के तहत, और सरस्वती  और उसकी सहायक नदियों पया और दृषद्वती के तट पर, दाशराज्ञ युद्ध से बहुत पहले से ही पुरुओं और सुदास के पूर्वजों की मातृभूमि थी वास्तव में, सुदास ने इसी क्षेत्र में एक यज्ञ करने के बाद ही  पूर्व और पश्चिम पर विजय का अपना अभियान शुरू किया था, जिसमें विश्वामित्र उनके पुरोहित थे, जब तक कि उन्होंने विश्वामित्र के स्थान पर वशिष्ठ को नियुक्त नहीं किया था और सभी सीमाओं पर सफलता प्राप्त नहीं की थी।         

लेकिन, जैसा कि मैंने ऊपर कहा, इस बेहद गलत बयान का जवाब देने के अलावा, मुझे पटनायक-सान्याल विवाद में भाग लेने में कोई दिलचस्पी नहीं है। तो आइए मैं हमारी भूमि के तीन नामों के मुख्य मुद्दे पर आता हूँ।




II. इंडिया, हिंदुस्तान और भारत


जैसा कि मैंने ऊपर बताया, तीनों नाम समान रूप से मान्य हैं। हालाँकि मैं उनमें से प्रत्येक पर बात करना चाहूँगा:




इंडिया (INDIA): 


अल जज़ीरा लेख (जिस पर मैं मुख्य रूप से अपनी प्रतिक्रिया सीमित कर रहा हूं) हमें यह भी बताता है:

 

"भाजपा सांसद नरेश बंसल ने कहा कि "इंडिया" नाम "औपनिवेशिक गुलामी" का प्रतीक है और इसे "संविधान से हटा दिया जाना चाहिए"

बंसल ने एक संसदीय सत्र में कहा, ''अंग्रेजों ने भारत का नाम बदलकर इंडिया कर दिया। हमारा देश हजारों वर्षों से 'भारत' नाम से जाना जाता है। ... 'इंडिया' नाम औपनिवेशिक राज द्वारा दिया गया था और इस प्रकार यह गुलामी का प्रतीक है।"


यह अति मूर्खतापूर्ण वक्तव्य एक प्रकार के "कैंसल कल्चर" को दर्शाता है; और आश्चर्य की बात है कि यह कट्टर हिंदुओं के एक वर्ग के बीच मौजूद है कुछ लोग तो यहाँ तक कहते हैं कि "हिन्दू " शब्द भी मूल रूप से बाहरी लोगों द्वारा दिया गया है, और इसलिए इसे पूरी तरह से त्याग दिया जाना चाहिए और " सनातन " जैसे किसी शब्द से प्रतिस्थापित किया जाना चाहिए। लोकमान्य तिलक ने इसी तरह, "हिंदू" को अन्य बिंदुओं के अलावा, "वेदों के अंतिम प्रमाण" में विश्वास करने वाले के रूप में परिभाषित किया था। अब्राह्मी एकेश्वरवादियों से प्रेरित इनमें से कोई भी हिन्दुइज्म या हिन्दू शब्द का स्व-नियुक्त पुनः-नामकरणकर्ता या पुनः-परिभाषक यह समझाने में सक्षम नहीं होगा कि क्या हिन्दू शब्द फिर भी निम्नलिखित संप्रदायों को अपने परिसीमन में रख सकेगा : बौद्ध, जैन, सिख, विभिन्न जनजातीय मूर्तिपूजक (पेगन) प्रणालियों के अनुयायी, विभिन्न संप्रदाय, उप-संप्रदाय, वर्ग जो निश्चित रूप से हिन्दू दायरे में आते हैं: इनमें से बहुत से लोग " वेदों के अंतिम प्रमाण " में विश्वास नहीं करते हैं, और उनमें से अधिकांश को वेदों की सटीक सामग्री के बारे में पता भी नहीं होगा।और इस बात का कोई तार्किक कारण नहीं है कि "सनातन" (शाश्वत) शब्द को हिन्दू पंथों यथा बौद्धों, जैनियों, सिखों, जनजातीय मूर्तिपूजक (पेगन) प्रणालियों के अनुयायियों को दर्शाने के लिए प्रयोग किया जाय (निश्चित रूप से कोई भी ग्रंथ इस शब्द के साथ इन सभी विभिन्न विश्वास-प्रणालियों को परिभाषित नहीं करता है)।


परंतु यदि हम (त्रुटिपूर्ण होने पर भी) यह मान भी लें कि "अंग्रेजों ने भारत का नाम बदलकर इंडिया कर दिया", तो भी यह ध्यान रखना होगा कि दुनिया के अधिकतर लोग, धर्म और राष्ट्र भी, बाहरी लोगों द्वारा दिए गए नामों से ही जाने जाते हैं ।उदाहरणतया, मुस्लिम पारंपरिक अभिलेखों के अनुसार, "मुस्लिम " नाम (मूल अर्थ: "आत्मसमर्पण करने वाले" के समान) मूल रूप से मूर्तिपूजक अरबों द्वारा उन अन्य अरबों के संदर्भ में उपहासपूर्वक प्रयोग किया गया नाम था जो मोहम्मद के अनुयायी बन गए थे, यह इंगित करने के लिए कि उन अनुयायियों ने दबाव में मोहम्मद के सामने "आत्मसमर्पण" कर दिया था, लेकिन मोहम्मद ने इसी उपहास को अपनी शक्ति बना लिया, "मुस्लिम" शब्द की ये व्याख्या करके: जिसने अल्लाह के प्रति समर्पण कर दिया है


जर्मन अपने राष्ट्र को जर्मन भाषा में "डॉयचलैंड" कहते हैं , और जापानी अपने राष्ट्र को जापानी में "निप्पॉन" कहते हैं, लेकिन मुझे नहीं लगता कि कोई भी समझदार जर्मन या जापानी विचारक यह ज़िद पकड़ेगा कि विश्व इतिहास और ऐतिहासिक अभिलेखों के एक बड़े भाग को मिटाया जाय, ताकि "जर्मनी" और "जापान" शब्दों को मिटाकर इन्हें इनके स्वदेशी नामों से बदला जा सके। न ही मुझे लगता है कि कोई भी समझदार जर्मन या जापानी, अंग्रेजी में बोलते समय, अपने देश को आमतौर पर अंग्रेजी में प्रयोग होने वाले नाम के बजाय उसके स्वदेशी नाम से संबोधित करने पर अड़ेगा। अगर मैं अंग्रेजी बोलते समय नियमित रूप से "इंडिया" के बजाय "भारत" कहूं तो मैं स्वयं कुछ मूर्खतापूर्ण सा महसूस करूंगा। और मुझे इससे अंतर नहीं पड़ता कि कोई भी अंधनिष्ठावान छद्म हिंदू इसका क्या अर्थ लेते हैं:  मौखिक अंधनिष्ठावाद और राजनीतिक रूप से सही शब्दजाल पर जोर देने वाले यही वे लोग हैं, जिन्हें यह एहसास होना चाहिए कि ऐसा करना एक अब्राहमिक प्रवृत्ति है। एक मुसलमान के लिए, सर्वोच्च सृष्टिकर्ता का एक अरबी नाम है: अल्लाह (मानो वह (अल्लाह) अरबी हो) और वे सभी जो सर्वोच्च सृष्टिकर्ता में विश्वास करते हैं लेकिन उसे किसी अन्य नाम से बुलाते हैं, वे पापी हैं जिन्हें नरक में अनन्त यातनाएँ झेलनी पड़ती हैं! ऐसा करना उस व्यक्ति की तरह है जो इस बात पर जोर देता है कि "पानी" या कोई अन्य एकमात्र शब्द ही पानी का एकमात्र सच्चा नाम है, और लोगों को उस तरल तत्व को संबोधित करने के लिए अकेले इसी शब्द का ही उपयोग करना चाहिए, चाहे वे किसी भी भाषा में बोल रहे हों!


लेकिन यह विचार ही त्रुटिपूर्ण है कि "अंग्रेज़ों ने भारत का नाम बदलकर इंडिया कर दिया"। मैं प्राचीन भारतीय इतिहास पर एक अप्रकाशित/अपलोड न किए गए लेख का एक उद्धरण नीचे दे रहा हूँ जिसे मैं लगभग एक महीने से लिख रहा हूँ  (हालांकि मुझे नहीं पता कि यह कब पूरा होगा और अपलोड किया जाएगा):  



"भारत का विचार इतना सार्वभौमिक और सर्वव्यापी था कि किसी भी विदेशी को संशय नहीं रहता था कि जब वह भारत को किसी भी नाम से संबोधित करता था, तो उसका क्या मतलब होता था: प्राचीन ईरानी (और उनके माध्यम से पश्चिम एशिया के देश) इस देश को "हिंद" के नाम से जानते थे। और इसके लोगों को "हिंदू" कहा जाता है। यूनानियों ने "हिंद" शब्द का उच्चारण "इंडस" के रूप में और "हिंदू" शब्द का उच्चारण "इंडोई" के रूप में किया। चीनियों ने भारत और भारतीयों को अन्य नामों के अतिरिक्त "शिन-तू" के रूप में संबोधित किया। मध्ययुगीन अरब, तुर्क और यूरोपीय भी भारत के एक विशिष्ट इकाई होने के प्रति पूरी तरह सचेत थे। बाद के दिनों में भारत को "उपमहाद्वीप" के रूप में संदर्भित करना किसी भी तरह से इस अवधारणा से अलग नहीं होता है: यह इसे केवल एक भिन्न रूप में व्यक्त भर करता है। किसी को कोई संदेह नहीं होता था कि वह "इंडिया" तक पहुंच गया है, चाहे वह उत्तर-पश्चिम में गांधार में उतरा हो, या भारत के दक्षिणी तट पर, या आगे पूर्व में हिमालय पार करके आया हो।



इस सुदृढ़ जागरूकता या चेतना के कारण इस नाम का और भी अधिक विस्तार हुआ: दक्षिण-पूर्व एशिया का एक बड़ा हिस्सा, जिसे भारत और चीन की दो महान सभ्यताओं के बीच सैंडविच माना जाता था, "इंडो-चाइना" के नाम से जाना जाता था, और दक्षिण-पूर्वी एशिया के द्वीपों को सामूहिक रूप से ईस्ट इंडीज कहा जाता था। जब यूरोपीय उपनिवेशवादी अमेरिका पहुंचे, तो उन्होंने सोचा कि वे भारत पहुंच गए हैं, और स्थानीय मूल निवासी भारतीय हैं: इसलिए उन्हें रेड इंडियन, अमेरिकन इंडियन, वेस्ट इंडीज नाम दिया गया। जब "द गॉस्पेल ऑफ़ सेंट थॉमस" की किंवदंती में बताया गया कि एक प्रचारक  (ईसाई धर्म का प्रचारक) भारत में पहुँच गया है और "शहीद" हो गया है, तब इस किंवदंती से स्पष्ट हो जाता है कि यह फ़ारस (Persia) का वर्णन कर रही है, इस धोखे में की पूर्वागमन के फलस्वरूप "प्रचारक" पहले ही कल्पित भूमि भारत पहुँच गया हो!"



निष्कर्षतः, "इंडिया" और "हिंदू " शब्दों की एक प्राचीन व्युत्पत्ति है, जो कम से कम फ़ारसी (Persian) और यूनानी (Greek) आक्रमणों जितनी प्राचीन तो है ही, और कम से कम जिस शब्द पर यह नाम (इंडिया) आधारित है, अर्थात् इंडस/सिंधु नदी, उसका इतिहास 3000 ईसा पूर्व से भी पहले ऋग्वेद तक जाता है और, बाहरी लोगों द्वारा दिए गए ये दोनों शब्द कहीं अधिक पूर्ण और सर्व-समावेशी हैं (हमारी पूरी सभ्यता, भूमि और मूल लोगों के संयुक्त परिवार और धार्मिक मान्यताओं और प्रणालियों को सम्मिलित करने वाले) बनिस्पत किसी भी एकल स्वदेशी लेखक या एकल परंपरा द्वारा किसी विशेष समुदाय या लोगों को अधिक सीमित दृष्टिकोण से परिभाषित करने के लिए उपयोग किए जाने वाले किसी भी शब्द के।


इसके अतिरिक्त, "इंडिया" शब्द को पूरी तरह से अस्वीकार करने की वकालत करने वाले इन हिंदुओं को यह आभास नहीं है कि वे वास्तव में जो कर रहे हैं वह हमारी महान सभ्यतागत पहचान की अवधारणा पर प्रहार कर रहा है। यदि आज हमारे पास जो खंडित इंडिया है, उसे "इंडिया" नहीं बल्कि केवल "भारत" कहा जाना चाहिए, तो क्या इसका मतलब यह है कि सदियों और शायद सहस्राब्दियों का सारा विदेशी साहित्य, जो इण्डियन सभ्यता (civilisation) की महानता के बारे में बात करता है, वो हमारी विरासत नहीं है? जब 1947 में हमारी भूमि का एक हिस्सा आधिकारिक तौर पर "पाकिस्तान" कहलाया, तो हमने खुद को "इंडिया जो कि भारत है" कहा, ताकि यह स्पष्ट हो सके कि हम मूल सभ्यता का प्रतिनिधित्व करते हैं (न कि पाकिस्तान): क्या हम इसमें गलत थे? यदि हमारी खंडित भूमि "भारत" का प्रतिनिधित्व करती है (न कि "इंडिया" का) और जो भूमि अलग हुई है वह "पाकिस्तान" का प्रतिनिधित्व करती है ("इंडिया" केवल अंग्रेजों द्वारा या कम से कम पहले के " बाहरी लोगों " द्वारा बनाई गई एक नकली रचना है), तब वास्तव में हड़प्पा और मोहनजोदड़ो "भारतीय" संस्कृति के नहीं बल्कि "पाकिस्तानी" संस्कृति के हिस्से हैं: क्या यही संदेश है?

 

मेरा मानना ​​है कि हिंदुओं को अपनी स्वयं की खोदी हुई कब्रों में कूदने से पहले देखना शुरू कर देना चाहिए ।इंडिया निश्चित रूप से हमारे राष्ट्र के लिए पूरी तरह से वैध नाम है, अन्य दो नामों जितना ही वैध है, और मूल रूप से अन्य दो नामों की तरह ही गहराई से स्वदेशी स्रोतों पर आधारित है।




हिंदुस्तान :

 

यह हमारी भूमि के लिए तीन समान रूप से मान्य नामों में से एक है, जिस पर कई हिंदुओं ने इस आधार पर आपत्ति जताई है कि यह नाम मुसलमानों या पहले फ़ारसी स्रोतों द्वारा दिया गया था, और आमतौर पर उर्दू और पाकिस्तान में इसका उपयोग किया जाता है ।

 

लेकिन क्या हमारी भूमि के लिए इससे अधिक उपयुक्त नाम हो सकता है? इंडिया नाम और भारत नाम की तरह , यह हिंदुस्तान नाम भी पहले हमारी पूरी सभ्यता (हमारी पूरी सभ्यता, भूमि और मूल लोगों के संयुक्त परिवार और धार्मिक मान्यताओं और प्रणालियों को सम्मिलित करते हुए) पर लागू होता था, और इसका अतिरिक्त लाभ भी है: जागरूकता दिखाने के लिए कि हमारा देश "हिंदुओं की भूमि" है (भले ही यह नाम की मूल भावना न रही हो) यदि इस नाम पर आपत्ति करनी ही है, तो वह गैर-हिन्दुओं को करनी चाहिए : हिंदुओं को तो इसे उत्साह के साथ अपनाना चाहिए।




भारत :   

 

पुनः, मैं प्राचीन भारतीय इतिहास पर अपने अप्रकाशित/अपलोड न किए गए लेख से उद्धरण देना चाहूँगा जिसे मैं लगभग एक महीने से लिख रहा हूँ (हालाँकि मुझे नहीं पता कि यह कब पूरा होगा और अपलोड किया जाएगा):


"जब जिन्ना ने अपना विभाजन आंदोलन शुरू किया, तो उन्होंने यह कहकर इसे उचित ठहराने की कोशिश की कि भारत वास्तव में एक राष्ट्र नहीं है: "यह केवल मानचित्र पर ऐसा दिखता है"। उनका क्या मतलब था? खैर, भारत के मूल-क्षेत्र (core area) के निम्न मानचित्र को देखिए। प्रकृति द्वारा दर्शाए गए भौतिक भूगोल की रूपरेखा ही चिल्लाकर कहती है कि यह एक इकाई है ─ और ऐसी इकाई जो सामान्यतया स्पष्ट रूप से और सशक्त रूप से दुनिया के बाकी हिस्सों से भिन्न एक इकाई के रूप में सामने आती है। [हालाँकि, भूवैज्ञानिकों के अनुसार, भारत मूल रूप से शेष एशिया से अलग था, और एक अलग महाद्वीप का हिस्सा था। लाखों वर्षों के दौरान यह महाद्वीप धीरे-धीरे टूट गया; संभवतः इसके कुछ हिस्से समुद्र में डूब गए; और जो हिस्सा आज भारत कहलाता है, उत्तर की ओर चला गया और एशिया में जुड़ गया। इसका अर्थ यह है कि भारत भौगोलिक रूप से शेष एशिया और दुनिया से अलग एक इकाई रहा है, लाखों वर्षों से]:





उपरोक्त चित्र केवल आधुनिक समय की उपग्रह तस्वीर पर आधारित नहीं है: प्राचीन विष्णु पुराण II.3.1 (यहां तक कि इसकी तिथि के पाश्चत्य विद्वानों द्वारा आधारित अनुमान भी, हमेशा अति-रूढ़िवादी रहने वाले, विकिपीडिया के अनुसार, इस पुराण को 400 ईसा पूर्व से 900 ईसवी तक प्राचीन बताते हैं) स्पष्ट रूप से हमें हमारी आत्म-पहचान देता है:

उत्तरं यत् समुद्रस्य हिमाद्रेश्चैव दक्षिणम् | 

वर्षं तद् भारतं नाम भारती यत्र सन्ततिः ||


"महासागरों के उत्तर में और बर्फीले पहाड़ों के दक्षिण में भरत की भूमि स्थित है, जिसमें भारती लोग रहते हैं।"


यह भारतीय सभ्यता उतना ही अनुमानित विवरण है, जितना कि उपरोक्त मानचित्र भारतीय सभ्यता की सीमाओं का। किंतु दोनों ही, सच्चे "समग्र अनुमान" के दृष्टिकोण से उस इकाई के मूल क्षेत्र का वर्णन करते हैं, जिसे हम आज भारत या इंडिया (या हिंदुस्तान) कहते हैं: सभ्यता इस मूल-क्षेत्र (core area) के बाहर सभी दिशाओं में फैल गई।


यह केवल विष्णु पुराण नहीं है, जो दो हजार साल से भी पहले, स्पष्ट रूप से इस भूमि और सभ्यता की पहचान की घोषणा करता है। यह चेतना प्राचीन भारतीय साहित्य के संपूर्ण विस्तार के हर अक्षर से प्रस्फुटित होती है, विशेष रूप से पुराणों और महाकाव्यों से, जो बार-बार भारत के हर कोने के लोगों, राज्यों और भौगोलिक विशेषताओं की विस्तृत सूची या संदर्भ प्रदान करते हैं। जैसा कि सीता राम गोयल इंगित करते हैं: "यहां तक कि व्याकरण का एक रसरहित ग्रंथ, पारिणी की अष्टाध्यायी, भी प्राचीन भारत के सभी जनपदों की लगभग पूरी गिनती प्रदान करता है"।"



देवदत्त पटनायक ने अपना ट्वीट विष्णु पुराण की नवीनतम संभावित तिथि पर आधारित किया है: "लोग विष्णु पुराण के बारे में भी बात करते हैं लेकिन यह बहुत बाद का ग्रंथ है और इसका समय 300 ईस्वी से पहले का नहीं है।" अर्थात्, विकिपीडिया की सीमा "400 ईसा पूर्व से 900 ईस्वी" के बजाय 300 ई.पू. परंतु: (क) यह पुराण फिर भी बहुत प्राचीन है, और (ख) यह निश्चित रूप से दिखाता है कि विष्णु पुराण के संकलनकर्ता अपने से बहुत पहले स्थापित एक पारंपरिक दृष्टिकोण का वर्णन कर रहे हैं, और एक नए नाम और अवधारणा का आविष्कार नहीं कर रहे, और (ग) यह आज पाये जाने वाले अधिकांश देशों और राष्ट्रों के नामों से भी अत्यंत प्राचीन है।

इसलिए, यह अपने आप में भारत (या भारतवर्ष) नाम को अस्वीकार नहीं करता है, और यह केवल "कैंसल इंडिया" के शोर के विरोध हेतु एक तर्क मात्र है। इसलिए मैं इसे यहीं छोड़ दूँगा।





III. कौन सा "भरत"?

 

इस सब के बाद केवल एक बिंदु शेष रहता है, जो स्पष्ट रूप से इस "बहस" में बार-बार उठाया जाता है: "भरत" कौन है जिसके नाम पर भारत (इंडिया) का नाम भारत या भारतवर्ष रखा गया है ? चूँकि सभी प्रकार की संकल्पनाएँ और अटकलें इंटरनेट पर विचरण कर रही हैं, मैं केवल तथ्यों को सामने रखना चाहूँगा: भारतीय परंपरा में तीन पृथक-पृथक भरत हैं:


[अनुवादक: भरत के लिए एकवचन की क्रिया प्रयोग की गयी है (यथा "है", न कि "हैं"), ताकि किसी प्रकार का भ्रम न हो। ऐसा करने का उद्देश्य किसी प्रकार का अपमान करना नहीं है।] 


पहला ऋग्वेद का भरत है उसका उल्लेख ऋग्वेद के सबसे प्राचीन मण्डल, मण्डल में किया गया है, (VI.16.4 में, जो एकवचन में भरत को संदर्भित करता है : ग्रिफ़िथ ने इसे प्राचीन पूर्वज भरत, "प्राचीन भरत" के संदर्भ के रूप में लिया है , जबकि अधिकांश अन्य अनुवादक इसे भरत के वंशज के रूप में दिवोदास के संदर्भ के रूप में लेते हैं, यानी भरत वंश के सदस्य के रूप में)। दिवोदास और सुदास के वंश के भरतों और उनके पूर्वजों और वंशजों की उपजाति पुरु है। पुरु प्राचीन ऋग्वेद (Old Rigveda) के मंडलों (6, 3, 7, 4, 2) के प्रथम पुरुष वर्णनकर्ता हैं। नवीन ऋग्वेद (New Rigveda। मण्डल 58, 1, 9, 10) में, ऋग्वेद अधिक व्यापक रूप से पुरुओं की पुस्तक बन जाता है, लेकिन भरत उपजाति अभी भी ऋग्वेद का मूल बनी रहती है। इसके अतिरिक्त, उनकी पारिवारिक देवी, भारती (व्यावहारिक रूप से भारतमाता की ऋग्वैदिक पूर्ववर्ती) ऋग्वेद की तीन महान देवियों में से एक हैं, जो सभी दस आप्री-सूक्तों (पारिवारिक ऋचाओं) में प्रतिष्ठित हैं ऋग्वैदिक काल के बाद, पुरुओं की सभी विभिन्न जनजातियाँ और उप-जनजातियाँ भरत के अपना पूर्वज होने का दावा करती हैं।


जैसे-जैसे वैदिक संस्कृति शेष उत्तरी भारत और दक्षिण में भी फैलती गई, भरत नाम के प्राचीन पूर्वज की परंपरा एक मुख्य विचार के रूप में उभरी। महान महाकाव्य, महाभारत, जो पांडवों और कौरवों के बीच संघर्षों पर केंद्रित था -- जो कि दोनों ही पुरु थे तथा भरत नाम के पूर्वज के वंशज होने का दावा करते थे -- ने भी इस परंपरा को और मजबूत किया। अतः मौर्य काल तक, जब पारंपरिक वर्णनों को लिखित रूप में स्थापित किया जाने लगा था, भरत ने (एक प्राचीन पूर्वज के रूप में) और वैदिक संस्कृति ने (भारत की केंद्रीय, वटवृक्ष-मूल समान संस्कृति के रूप में) भारत या भारतवर्ष नाम को जन्म दिया जिसे भारतीय सभ्यता के संपूर्ण भौगोलिक विस्तार के लिए पारंपरिक रूप से स्वीकृत मूल नाम के रूप में मान्यता मिली।


दूसरा भरत दुष्यन्त और शकुंतला का पुत्र है, जो महाभारत और महाकाव्यों में पाई जाने वाली एक कहानी के केंद्रीय पात्र हैं। यह कहानी संस्कृत नाटक (कालिदासकृत अभिज्ञानशाकुंतलम) और भारत में बाद के साहित्य और नाटक संस्कृति (उदाहरण के लिए 1880 में महाराष्ट्र में पहला संगीत नाटक) में सबसे प्रसिद्ध प्रकरणों में से एक है । कई लोग भूलवश इस भरत को प्राचीन पूर्वज भरत  मान लेते हैं ।


हालाँकि, इस भूल के सत्य होने की संभावना नहीं है, क्योंकि दुष्यन्त को हस्तिनापुर का पुरु राजा माना जाता है,  जिसका वैदिक साहित्य (सभी चार संहिताओं , साथ ही ब्राह्मणों , अरण्यकों और प्रमुख उपनिषदों ) में वर्णन नहीं मिलता अतः वह स्पष्ट रूप से प्राचीन ऋग्वेद (Old Rigveda) से पहले के काल का एक पूर्वज राजा नहीं है।और शकुंतला को विश्वामित्र की बेटी माना जाता है, जो प्राचीन ऋग्वेद (Old Rigveda) में सुदास के पुरोहित थे।अतएव स्पष्ट रूप से, इस कहानी में जो भी तत्व तथ्यों पर आधारित हों, इस भरत को प्राचीन पूर्वज भरत  समझना संभव नहीं है


तीसरे भरत जैन साहित्य में एक इक्ष्वाकु राजा हैं, जिन्हें पूर्व-महावीर तीर्थंकर ऋषभदेव का पुत्र माना जाता है जैन ग्रंथों में परंपरागत रूप से उन्हें प्राचीन भारत का पहला सम्राट या चक्रवर्ती माना जाता है। लेकिन इन परंपराओं के बारे में और कुछ भी सही हो या न हो, कई लोगों द्वारा किया गया एक दावा, कि वह प्राचीन पूर्वज भरत हैं, जिनके नाम पर देश का नाम रखा गया है, निश्चित रूप से गलत है।  








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