श्रीकांत तालागेरी के लेख The Sāmaveda in Urdu? का हिन्दी अनुवाद

श्रीकांत तालागेरी के लेख The Sāmaveda in Urdu? का अनाधिकारिक हिन्दी अनुवाद

मूल अंग्रेज़ी लेख (१८ मार्च २०२३ को प्रकाशित) के लिए उपरोक्त अंग्रेज़ी शीर्षक पर क्लिक करें। 


सामवेद उर्दू में?


श्रीकांत जी. तालागेरी



 

आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत द्वारा बॉलीवुड फिल्म निर्माता इकबाल दुरानी द्वारा अनुदित सामवेद का उर्दू अनुवाद विमोचित किये जाने के समाचार ने कई तरह की प्रतिक्रियाएं पैदा की हैं।  इनमें से कुछ प्रतिक्रियाओं की तथा इस अनुवाद की गहराई में जाने से पहले यह स्पष्टीकरण देना उचित होगा कि सामवेद चार वेद संहिताओं में से एक हैकिंतु परिमाण की दृष्टि से उनमें सबसे छोटा है; इसमें अधिकतर ऋग्वेद से लिए गए अंश सम्मलित हैंजिन्हें मंत्रोच्चार अथवा गायन के उद्देश्य से संगीतमय शैली में रखा गया है। 


इस अनुवाद के विमोचन और स्वयं अनुवाद-विशेष के भी कुछ विविध पहलू ध्यान देने योग्य हैं:


1. अनुवाद का विमोचन 17 मार्च 2023 को लाल किले में एक समारोह में आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत द्वारा किया गया। इंडियन एक्सप्रेस के अनुसारसमारोह के आयोजक जीवकांत झा ने समाचारपत्र को बताया कि "सामवेद का अध्ययन हिंदुओं और मुसलमानों के बीच प्रेम और स्नेह को पुष्पित-पल्लवित कर सकता है", और यह भी कि सामवेद उतना ही मुसलमानों के लिए भी है, जितना कि हिंदुओं के लिएक्योंकि यह एक "सांस्कृतिक ग्रंथ” है, “धार्मिक नहीं " यह पहला दावाकि सामवेद का अध्ययन हिंदुओं और मुसलमानों के बीच प्रेम और स्नेह को पुष्पित-पल्लवित कर सकता है " न केवल मूर्खतापूर्ण, अपितु अर्थहीन है। परंतु दूसरा दावाकि यह एक "सांस्कृतिक ग्रंथ” है, “धार्मिक नहीं " निर्लज्ज रूप से ढिठाईपूर्ण है: किसी को भी हिंदू ग्रंथों के बारे में (जो सांस्कृतिक और धार्मिक दोनों हैं) ऐसी घोषणा करने का अधिकार किसने दिया?"

2. दूसरी ओरउन अल्पज्ञानी हिंदुओं की ट्वीट-टिप्पणी-वृष्टि है जो अब्राहमी होने को व्यग्र हैं; जिनकी उद्घोषणा है कि किसी ग़ैर-हिंदू (कुछ हिंदू यहाँ म्लेच्छ शब्द का उपयोग भी करते हैं) को वेदों का अनुवाद तो छोड़िए, अध्ययन तक का अधिकार नहीं है, अथवा यहाँ तक कि वेदों का किसी और भाषा में अनुवाद ही अनुचित है। 

3. हालांकि किसी भी सक्षम व्यक्ति को सामवेद का किसी भी भाषा में अनुवाद करने का अधिकार है, लेकिन एक हिंदू विद्वान की कुछ प्रारंभिक टिप्पणियाँ इंगित करती हैं कि इस अनुवाद-विशेष में निश्चित रूप से कुछ ऐसे तत्व उपस्थित हैं, जो इसे बहुत गंभीरता से लेना दुष्कर बनाते हैं:

 

https://www.facebook.com/jataayu.blore/posts/pfbid0SyzwaqFbaDtPh3JPngrda1wTx4m9EMpeVQnLL6DKzidrDAvqJHkud4pBgEs81Phml


इस विद्वान जटायु B'luru के अनुसार: "मैं अनुवाद से कुछ नमूने देखने के लिए उत्सुक था। शुक्र है कि भागवतजी के भाषण से पहले मंच पर 2-3 अंश पढ़े गए। अनुवाद की भाषा अच्छी है, किंतु पठित अंशों में मूल सामवेद के देव-नामों (इंद्रमित्रवरुण आदि) को "परमेश्वर" में परिवर्तित कर दिया गया है। ऐसा अक्सर आर्य-समाज के अनुवादों में देखने को मिलता है, तथा सम्भवतः एकेश्वरवाद के प्रति अंधानुरक्ति से प्रेरित होता है। किंतु यह सर्वथा अनुचित है। देवताओं के नाम वैसे ही दिए जाने चाहिए जैसे मूल में हैंतथा देवताओं के विषय में यथोचित शब्दावली (अनुवादक: यथा निघंटु) तथा व्याख्या होने चाहिए। इस दृष्टिकोण सेपश्चिमी भारत-विदों (इंडोलॉजिस्ट्स) के अंग्रेजी अनुवाद भी इस तरह के "परमेश्वर" शैली वाले बनावटी हिंदी अनुवादों की तुलना में मूल के अधिक निकट हैं।"


यदि इस अंश को अनुवाद का प्रतिनिधि माना जाय, तो निश्चित रूप से यह मूल का सत्यनिष्ठ  अनुवाद नहीं है  यह ऐसा है कि एक हिंदू अनुवादकया विशेष रूप से एक इस्कॉन-पंथी अनुवादक, बाइबल या कुरान का किसी भारतीय भाषा में अनुवाद करेऔर "यहोवा" या "अल्लाह" शब्दों को "कृष्ण" में अनुवादित कर दे। [इसके अतिरिक्तध्यान दें कि " परमेश्वर शब्द न तो वैदिक शब्द है और न ही उर्दू का!]।


4. किसी भी गंभीर विद्वान के लिए इससे भी अधिक क्षुब्धकारी वह है जो कि समारोह में अनुवादक ने कथित तौर पर कहा: "आज औरंगज़ेब हार गया और मोदी जी जीत गए " !!  इस प्रकरण में औरंगज़ेब और मोदी जी कहाँ से आ गए? मोदी के लिए इस तरह के चाटुकारितापूर्ण संदर्भ अनुवादक के कार्य के लिए प्रचार और पैसा बटोरने में सहायक हो सकते हैं। द कश्मीर फाइल्सजिसमें मोदी को अप्रत्यक्ष किंतु सकारात्मक रूप से संदर्भित किया गया थापर पैसों की लगभग बारिश-सी हुई (विवेक अग्निहोत्री और द कश्मीर फाइल्स का बड़ा प्रशंसक होने के बाद भी मैं ये कह रहा हूँ), जबकि "1921 नदी से नदी तक (जिसमें मोदी का नाम तक नहीं था) "रिलीज़" हुईरिलीज़ का श्रेय मोदी को दिया गया हैऔर फिर ठंडे बस्ते में ऐसे डाल दी गयी जैसे कि इसे कभी रिलीज़ या निर्मित ही नहीं किया गया था !!

5. अंततःअनुवाद के विमोचन समारोह के बारे में बताते हुए एक रिपोर्ट में निम्नलिखित लिखा गया: “एक कहानी का हवाला देते हुएआरएसएस प्रमुख ने कहा कि किसी पर्वतशिखर तक पहुँचने के लिए भिन्न-भिन्न व्यक्ति भिन्न-भिन्न मार्गों का प्रयोग कर सकते हैं। हालाँकि वे सम्भवतः समझते हों कि उनके अतिरिक्त दूसरों के मार्ग अनुपयुक्त हैं, किंतु शिखरासीन व्यक्ति देख सकता है कि सभी मार्ग एक ही लक्ष्य तक आते हैं, उन्होंने कहा”। यहां मुझे यह स्वीकार करना होगा कि यदि यह मोहन भागवत का मौलिक कथन हैतो उन्हें सलाम। उनका कथन एक अहम अंतर को दर्शाता है: अन्य धर्मों के प्रति, हिंदू धार्मिक दृष्टिकोण तथा (अनुवादक: अन्य धर्मों के प्रति) अब्राहमी दृष्टिकोण के बीच का अंतर। वस्तुतः हिंदू दृष्टिकोण एक ऐसे व्यक्ति का दृष्टिकोण है जो (आध्यात्मिक) पर्वतशिखर पर पहुंच गया है और वहाँ से अवलोकन कर रहा है: शिखर के चारों ओर अलग-अलग दिशाओं का, जहाँ अन्य सभी पर्वतारोही (अर्थात् अन्य धर्म और उनके प्रवक्ता) पसीना बहाते हुए ऊपर चढ़ रहे हैं, इस अवधारणा के साथ कि केवल उनका मार्ग ही शिखर तक जाता है, तथा अन्य सभी पर्वतारोही कहीं न कहीं रास्ता भटक चुके हैं (अथवा किसी खाई की ओर बढ़ रहे हैं)। 


6. हाँसभी हिंदू ग्रंथों का सभी भाषाओं में अनुवाद किया जाना चाहिए और उसे सभी को पढ़ना और समझना चाहिए। यदि अनुवादक का उद्देश्य यही था (कार्यक्रम में अपने भाषण के दौरान दारा शिकोह और औरंगज़ेब की ओर इंगित करनाउनके पक्ष में एक सुदृढ़ बिंदु है)तो उन्हें इसका श्रेय दिया जाना चाहिए, साथ-ही-साथ इसके कि उनके द्वारा चित्रित पूर्णतः अशुद्ध दृष्टिकोण (विभिन्न वैदिक देवताओं के नामों का एक तटस्थ और एकेश्वरवादी एकल इकाई रूप में चित्रण)  को भी समझा तथा रेखांकित किया जाय। 


लेकिनजैसा कि सोशल मीडिया पर कई टिप्पणियों ने इंगित किया हैसमय की आवश्यकता यह है कि इस्लाम और ईसाई धर्म के ग्रंथों का भारतीय भाषाओं में अनुवाद किया जाए ताकि हिंदुओं को पता चल सके कि वास्तव में उन ग्रंथों में है क्या। यह अत्यंत महत्वपूर्ण भगीरथ कार्य सीता राम गोयल और राम स्वरूप द्वारा प्रारम्भ किया गया था, उनके द्वारा वॉयस ऑफ इंडिया से प्रकाशित पुस्तकें के माध्यम से। यद्दपी अगर वे आज जीवित होते, तो हिंदू विमर्श के इन दो पुरोधाओं को इस कार्य के लिए दंडित किया गया होता (जैसा कि अनेक जागरूक हिंदुओं के साथ हो रहे घटनाक्रमों से स्पष्ट हैविशेषतः नूपुर शर्मा), तथापि यही एकमेव मार्ग है 


परिशिष्ट (19 मार्च 2023 को वर्धित):


किसी के द्वारा उठाए गए दो बिंदु:


1. संस्कृत ग्रंथों का उर्दू में सही अनुवाद किया ही नहीं जा सकता है।


2. अगर मोदी को इस बात का श्रेय दिया जाए कि यह अनुवाद उनके शासन में हुआ तो क्या यह गलत है?


1. संस्कृत ग्रंथों का उर्दू में सही अनुवाद किया ही नहीं जा सकता है।


यह एक ऐसा दृष्टिकोण है जो आजकल कई हिंदू समूहों में बहुत लोकप्रिय हो गया हैकि संस्कृत में कई "अरूपांतरणीय शब्द" (अनुवादक: वे शब्द जिनका अनुवाद Untranslatable या असम्भव है) हैं, और इसलिए संस्कृत ग्रंथों का किसी अन्य भाषा में सही अनुवाद नहीं किया जा सकता है।


यह सत्य है, किन्तु केवल संस्कृत के लिए नहीं, वरन किसी भी भाषा के लिए । प्रत्येक भाषा में शब्दार्थव्याकरण और शब्दावली सम्बन्धी अपनी विशिष्टताएं और बारीकियां होती हैं जो अनुवाद में खो जाती हैं या अस्पष्ट हो जाती हैं। प्रत्येक भाषा में ऐसी विशेषताएँशब्द और बारीकियाँ होते हैं जिनका अपने अंतर्निहित अर्थ को गंभीर रूप से खोए बिना किसी भी अन्य भाषा में सटीक अनुवाद नहीं किया जा सकता है (अनुवादक नोट १ नीचे देखें) किसी भी एस्किमो-ऐलियूत भाषा में "हिम" (snow) के लिए अनेक शब्द होते हैं; जापानी भाषा में (संभाषण के) उत्तम, मध्यम, तथा अन्य पुरुष (अनुवादक: 1st, 2nd, 3rd person in English) के सामाजिक ओहदे के आधार पर तीन स्तर के शब्द-भेद होते हैं; मराठी में भाववाचक संज्ञाओं तथा नपुंसकलिंग वस्तुओं के लिए व्याकरणानुसर तीन लिंग सम्भव हैं, जबकि हिन्दी में दो तथा कन्नड़ में एक; : ठीक वैसे ही, जर्मन में तीन और अंग्रेज़ी में एक। एक अकेले कोंकणी धातु-रूप वाचानि va:çāni ("नहीं गया/गयी/गए") का मराठी में अनुवाद निम्नलिखित विभिन्न रूपों में किया जाएगा:





पीजी वोडहाउस मेरे पसंदीदा अंग्रेजी लेखकों में से एक हैंऔर मैं किसी को भी उनकी किसी भी पुस्तक को मूल के सार-तत्व को पूरी तरह खोए बिना किसी भी अन्य भाषा में अनुदित करने की चुनौती देता हूंऔर यह बात किसी भी भाषा में लेखन-कला के विशेषज्ञों पर लागू होगी।


इस सब के बाद भी, पुस्तकों का एक भाषा से दूसरी भाषा में अनुवाद किया जाता है तार्किक सन्निकटताओं का प्रयोग करके या गूढ़ार्थों का वर्णनात्मक विस्तार करकेऔर वहाँ भी जहां ये (अनुवाद) शब्दशः एकदम सटीक न हों, इन अनुवादों को (यदि वे सही किए गए हों) कार्यकारी तौर पर स्वीकार करना होगा। अन्यथा, किसी भी  भाषा से किसी भी भाषा में अनुवाद को प्रतिबंधित या अस्वीकार करना होगा। संस्कृत एक असाधारण रूप से समृद्ध भाषा हो सकती है, लेकिन यह नियम का एकमात्र अपवाद नहीं हो सकती। जब किसी भी अनुवाद में प्रामाणिक त्रुटियाँ होंतो किसी और को केवल उन त्रुटि-विशेषों को इंगित करना होता है, और उन्हें ठीक करना होता है (उदाहरणतःमैंने जेमिसन द्वारा वैदिक शब्द अरति के गलत अनुवाद की ओर ध्यान दिलाया थातथा दूसरे भारत-विदों (इंडोलॉजिस्ट) द्वारा किए गए अनेक अन्य अशुद्ध अनुवाद-विशेषों की ओर भी) लेकिन अनुवाद की प्रक्रिया को ही एक त्रुटिपूर्ण प्रक्रिया मानकर उस पर आपत्ति करना सम्भव नहीं।


2. क्या यह अनुचित है कि मोदी को इस बात का श्रेय दिया जाय कि यह अनुवाद उनके शासनकाल में किया गया?


किसी शासक के क्षेत्र में होने वाली प्रत्येक घटना का श्रेय उस शासक को दिया जाना बड़ी विचित्र विचारशैली का परिचायक है, जब तक कि किसी घटना का होना केवल और केवल शासक के प्रत्यक्ष तथा सोचे-समझे प्रयासों का तार्किक परिणाम न हो। एक इस्लामी धार्मिक कट्टरपंथी होने के कारण औरंगज़ेब ने दारा शिकोह को हिंदू ग्रंथों के अध्ययन के लिए दंडित किया था: इसलिए मोदी के लिए यहां एकमात्र "श्रेय" यह है कि वह एक इस्लामी धार्मिक कट्टरपंथी नहीं हैं।  


जहां तक ​​किसी भी और हर किसी घटनाक्रम का श्रेय शासक को देने की बात है, आइए देखें कि राजनीतिक चिंतन के दो धुरन्धरों ने इस विषय पर क्या लिखा है:


जॉर्ज ऑरवेल ने अपनी पुस्तक "ऐनीमल फार्म" में इस स्थिति को इस प्रकार दर्शाया है: “प्रत्येक सफल उपलब्धि  तथा आकस्मिक भाग्योदय के लिए नेपोलियन को श्रेय देना एक सामान्य बात हो गयी थी। एक मुर्गी को दूसरी मुर्गी से यह टिप्पणी करते अक्सर देखा जा सकता था: “हमारे नेता, कॉमरेड नेपोलियन, के मार्गदर्शन में मैंने छह दिनों में पांच अंडे दिए हैं।”; या फिर किसी तालाब में पानी का आनंद लेते दो कौव्वे अचानक कह उठते, “धन्य हो कॉमरेड नेपोलियन का नेतृत्व, कि जहाँ  तालाब का पानी भी इतना स्वादिष्ट है!”

 

भारत में इस्लामी शासन के कुकर्मों पर लीपापोती करने के प्रयास में कुछ लोग कहते हैं: "मुस्लिम शासन के दौरान भीहमने तुलसीमीरासूरकबीर जैसे महान कवियों का निर्माण किया - असंख्य सूफी संत-कवियों के अलावा "। ऐसे लोगों का उल्लेख सीता राम गोयल ने अपनी पुस्तक “भारत में इस्लामी साम्राज्यवाद की कहानी” (अनुवादक नोट २ नीचे देखें) में करते हुए ध्यान दिलाया है कि किसी भी समाज में व्यक्ति-विशेष की उपलब्धियों का शासक की प्रवृत्ति से कोई सम्बंध नहीं होता, केवल ऐसे तानाशाही समाज को छोड़कर जहां आधिकारिक अनुमति के बिना एक पत्ता भी नहीं हिल सकता। भारत में इस्लामिक शासन की लीपापोती पर वे आगे कहते हैं, “मुस्लिम शासन का कबीरनानकतुलसीसूर और मीरा जैसे हिंदू संतों के उदय से कोई लेना-देना नहीं था। वे इस्लाम के बावजूद पैदा हुएऔर वे पल्लवित हो सके तो केवल इसलिए कि इस्लाम उनकी गर्दन तक नहीं पहुँच सका। क्या हम सोल्झेनित्सिन के उदय का श्रेय स्टालिन के शासन को देंगे? अंततः अजेय होकर उभरना मानवीय जिजीविषा का प्रारब्ध है। यह दावा कोई नहीं कर रहा कि वर्तमान भाजपा सरकार किसी भी ऐसे व्यक्ति की गर्दन तक पहुँचना चाहेगी जो हिन्दू ग्रन्थों का किसी और भाषा में अनुवाद करे, परन्तु यह उद्घोषणा भी निरर्थक है कि सामवेद का उर्दू अनुवाद मोदी की औरंगज़ेब पर विजय है!  

 

**************************************अनुवाद समाप्त***************************************


अनुवादक की कलम (की-बोर्ड) से:

नोट १)  लेखक ने निम्नलिखित कथन के पक्ष में कुछ उदाहरण प्रस्तुत किए हैं: प्रत्येक भाषा में ऐसी विशेषताएँशब्द और बारीकियाँ होते हैं, जिनका अपने अंतर्निहित अर्थ को गंभीर रूप से खोए बिना किसी भी अन्य भाषा में सटीक अनुवाद नहीं किया जा सकता है।” [Original Every language has features, words and nuances which simply cannot be exactly translated into any other language without severe loss of its intrinsic meaning.]

इसी तर्क के पक्ष में अनुवादक द्वारा अपनी ओर से निम्न बिंदु विचार हेतु प्रस्तुत हैं: 

अ) उत्तराखंड की दोनों प्रमुख पहाड़ी भाषाएँ (कुमाऊँनी तथा गढ़वाली) अपनी विशिष्टताऐँ रखती हैं। इन्हीं विशिष्टताओं में से प्रमुख है: गन्ध के लिए असंख्य अलग-अलग शब्दों का होना। गन्धों के द्योतक शब्दों का वर्गीकरण इतना गहरा है की कुत्ते, बाघ, मवेशी – इन सबसे आने वाली गंध के लिए अलग-अलग शब्द हैं। संलग्न YouTube चलचित्र में इन शब्दों का वृहद् विस्तार देखा जा सकता है: 
https://www.youtube.com/watch?v=EZ-_KuHHcAE

आ) जहाँ एक ओर गंध के लिए पूरा शब्दकोश है, वहीं कई स्थानों पर इन दो पहाड़ी भाषाओं का शब्दकोश अत्यधिक सीमित है। उदाहरणतः व्याघ्र, सिंह, तेंदुआ, चीता – ये चारों प्रजातियाँ “बाघ” नाम से ही पुकारी जाती  हैं। व्याघ्र तथा तेंदुए के अतिरिक्त और कोई प्रजाति पहाड़ों में नहीं मिलती। अतः उनके लिए अलग शब्द रखना सम्भवतः इसी कारण सम्भव न हुआ हो। 

अनुवादक, मूल लेखक के इस निष्कर्ष से पूर्णतः सहमत है कि विभिन्न भाषाओं की विशिष्टताओं से जनित चुनौतियों के उपरांत भी अनुवाद की विधा को ही “अरूपांतरणीय” (Untranslatables) के बहाने सिरे से नकार देना कहीं की बुद्धिमत्ता नहीं है। ऐसा करना मानव जाति की सामूहिक उपलब्धियों को संकीर्णता की सीमा में बांधने से अधिक और कुछ नहीं। 


नोट २) क्योंकि गोयल जी की यह पुस्तक (The Story of Islamic Imperialism in India) वॉयस ओफ इंडिया प्रकाशन (आदित्य प्रकाशन) से ही हिन्दी में भी उपलब्ध है। अतः इस परिदृश्य-विशेष में पुस्तक का नाम भी – यद्यपि यह व्यक्तिवाचक संज्ञा है -- अनुवादित किया गया है (ऐसा “ऐनिमल फार्म” के विषय में नहीं किया गया है)।



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